श्वेता पुरोहित-
सन्त कबीर कहते हैं –
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाहिं ॥
प्रेमकी विलक्षण रीति है कि उसमें ‘मैं-पन’ अर्थात् अपने व्यक्तित्वका अहंकार त्यागना आवश्यक है। प्रेमके लिये परमात्मा एकसे दो होते हैं और प्रेमके वश होकर पुनः एक हो जाते हैं। प्रेममें अभेदता, अभिन्नता अथवा अनन्यता अनिवार्य है, तभी अनन्त रसकी अनुभूति हो पाती है। मीराबाई कहती हैं-
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ॥
श्रीरामचरितमानस में सुन्दरकाण्ड का प्रसंग है। हनुमान्जी सीताजी के पास भगवान् राम का सन्देश लेकर जाते हैं और कहते हैं ‘हे माता ! मनमें ग्लानि न मानिये । श्रीरामचन्द्रजी के हृदय में आप से दूना प्रेम है ।’ ऐसा कहकर हनुमान्जी प्रेम से गद्गद होकर नेत्रोंमें प्रेमाश्रुओंका जल भरकर भगवान् श्रीराम का सन्देश सीताजी को सुनाते हैं-
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं ।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं
(रा०च०मा० ५।१५।६-७)
‘हे प्रिये ! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले।’
गीता में कर्मयोग के सन्दर्भ में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
(३।२७)
सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, परंतु अहंकार से मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य ‘मैं कर्ता हूँ’- ऐसा मान लेता है।
वास्तव में जीव अपनी विभिन्न कामनाओं के अधीन होकर ही कर्म करता है और उन कर्मों का कर्ता और भोक्ता बनकर सुखी-दुखी होता रहता है। उसके चेतन स्वरूपमें कभी कोई क्रिया होती ही नहीं ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३।३१)।
जैसे परमात्मा सृष्टि-रचना का कर्म करके भी आकाशकी भाँति निर्लिप्त रहते हैं, ऐसे ही जीवात्मा भी उन्हीं का अंश होनेके कारण देह में लिप्त नहीं होता है। जड़ प्रकृति के अंश ‘अहम्’ को पकड़ने के कारण यह अपना ही एक अलग संसार रच लेता है और जीवनपर्यन्त उसी में मोहित होकर कर्मबन्धन में बँधता रहता है।
कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग अथवा किसी योगमार्गपर चलें, परमात्मासे योग करनेके लिये अपने अहंकारका त्याग करना होगा। कर्मयोग में अपने क्षुद्र स्वार्थी का त्याग करके हमें निष्काम भावसे जगत्के खुद स्वाधों का त्याग करके हमें निष्काम या शरीर इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार युक्त जड़ प्रकृति का त्याग करके चेतन स्वरूपमें स्थित होना होगा, ध्यानयोग में धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा संसार से धीरे-धीरे उपराम होकर मन, बुद्धि इत्यादि को परमात्मा में लय करना होगा तथा भक्तियोग में समस्त कर्तव्य-कर्मों को भगवान्में समर्पित करते हुए उन्हीं की शरण में जाना होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी जड़-प्रकृति के मलिन अहं का त्याग करते हुए चेतन प्रकृति अथवा स्वरूप के शुद्ध अहं से साक्षात् करना होगा।
इस सम्बन्ध में छत्रपति शिवाजी के जीवन का एक
दृष्टान्त प्रेरणास्पद है। एक बार शिवाजी अपने राज्यद्वारा हो रहे निर्माण-कार्यों का निरीक्षण कर रहे थे। अनेक मजदूर कार्य में लगे हुए थे और शिवाजी उन्हें देखकर प्रसन्न हो रहे थे कि वे कितने मजदूरोंका जीवन – निर्वाह कर रहे हैं। सर्वज्ञ सन्त समर्थ गुरु रामदास जान गये कि उनके शिष्य शिवा के मन में अहंकार का बीज अंकुरित हो गया है। वे उसे नष्ट करना चाहते थे। अपनी योगशक्ति से समर्थ गुरु उसी समय शिवाजी के आगे प्रकट हो गये। अनायास अपने गुरुदेव को वहाँ उपस्थित देखकर शिवाजी कुछ समझ नहीं पाये। तभी गुरुदेव ने कहा- ‘शिवा ! यह जो सामने शिला पड़ी है, इसे मजदूरोंसे तुड़वा दो।’ शिला को तोड़ा गया तो उसके बीच में थोड़ा जल था और उसमें एक मेढक बैठा हुआ था। गुरुदेव ने पूछा- ‘शिवा ! मेढक का जीवन-निर्वाह कौन कर रहा है?’ शिवाजी समझ गये कि गुरुदेव मेरे भीतर छिपे अहंकार को समाप्त करने के लिये ही प्रकट हुए हैं। वे तुरन्त गुरुदेवके चरणों में गिर पड़े और क्षमा-याचना की। इस प्रकार सद्गुरु अथवा परमात्मा हमें समय-समय पर सावधान करते रहते हैं कि अपने ‘मैं-पन’ का त्याग करनेसे ही परमात्मा की प्राप्ति सम्भव है।
- आचार्य श्रीगोविन्दरामजी शर्मा