श्वेता पुरोहित-
द्वारकानाथ ने दारुक सारथी को आज्ञा की है – ‘विदुरजी के यहाँ जाना है, वहाँ रथ ले चलो।’ रथ निकला है। विदुरजी के द्वारपर रथ आया है। उस समय झोंपड़ी का दरवाजा बन्द कर के पति-पत्नी एकान्त में कीर्तन कर रहे हैं। मन्दिर में जा करके भजन-कीर्तन करना ठीक है-बहुत अच्छा नहीं है। अपने घरमें, एकान्त में बैठकर कीर्तन करो। मन्दिर में जाकर जो भक्ति करता है, उसकी प्रसिद्धि होती है। भक्ति जब प्रकट होती है, तब भक्ति में विघ्न आता है। भक्ति प्रकट हो जाय तो भक्ति बढ़ती नहीं है। भक्ति अलौकिक धन है, उसको छिपाना चाहिये। जगत् को बताओ कि मैं संसार में फँसा हुआ साधारण जीव हूँ। बाहर से जगत् के साथ प्रेम बताना, अन्दर से परमात्मा के साथ प्रेम करना – यही भक्ति है। कोई जाने नहीं कि आप भक्ति करते हैं।
पति-पत्नी का ऐसा नियम था – दरवाजा बन्द करके एकान्त में कीर्तन करते हैं। आज कीर्तन में हृदय पिघलता है। विदुर-पत्नी कीर्तन में बालकृष्णलाल के साथ बातें करती है। बालकृष्णलाल को कहा है -‘एक बार कथा में मैंने ऐसा सुना था कि गोकुल की गोपी प्रेम की मूर्ति है। कभी-कभी गोपी ऐसा बोलती है- ‘यह कन्हैया कपटी है, श्रीकृष्ण कपट करते हैं।’ मैं ऐसा नहीं कहती। मैं तो गोपियों के चरण में वन्दन करती हूँ। ऐसा बोलने का अधिकार केवल गोपियोंको है कि श्रीकृष्ण कपट करते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि गोपी जो बोलती है, वह सत्य है। आप ऐसे ही हो। बारह वर्षतक मैंने आपकी आशा रखी थी। मैं मानती थी कि हस्तिनापुरमें आयेंगे, तब मेरे घरमें भी जरूर पधारेंगे। आपसे कुछ माँगना नहीं है। कोई सुख भोगनेकी इच्छा नहीं है।’
विदुरजीकी भक्ति भोगके लिये नहीं है, विदुरजीकी भक्ति भगवान्के लिये है – भगवान् मेरे घरमें आयें, एक बार भगवान् मेरे घरमें भोजन करें – वह मुझे देखना है। मेरी वृद्धावस्था है। अब शरीर बहुत दिनतक नहीं रहेगा। मेरे जीवनका यह अन्तिम मनोरथ है। एक बार द्वारकानाथ श्रीकृष्ण मेरे घरमें आयें, मेरे घरमें भोजन करें।
विदुर-पत्नी कहती है- ‘मैं आशा रख करके आपकी भक्ति करती थी। आज मेरी आशा निराशा हो गयी। आप मेरे घरमें नहीं आओगे।’
बालकृष्ण गालमें हँसते हैं। विदुर-पत्नीकी आँखों में आँसू हैं- मेरे घरमें भगवान् नहीं आते हैं, मेरी भक्ति भगवान् को प्रिय नहीं है। बारह वर्षतक मैंने बहुत दुःख सहे हैं।
विदुर-पत्नी रोती है, बालकृष्ण हँसते हैं। ‘आज मैं रोती हूँ, मुझे दुःख होता है, मुझे देख करके आप हँसते हो- मैं रोती हूँ, आपको अच्छा लगता है- इस प्रकार वैष्णवों को आप रुलाओगे तो आपकी भक्ति कौन करेगा ?’ फिर विदुर-पत्नी पछताती है- ‘मेरी भूल हो गयी। अभिमान में आज मैंने भगवान् को सुनाया है।’ विदुर-पत्नी बार-बार वन्दन करती है- ‘आज मेरी भूल हो गयी। अब कभी मैं ऐसा नहीं बोलूँगी। क्षमा करो” क्षमा करो। मेरा अभिमान मरता नहीं है। मैं भक्ति करती हूँ-इसका मुझे अभिमान है।” कृपा करो।
आज अभिमान में मैंने भगवान् को – मेरे मन में जैसा आया, वैसा सुना दिया। कृपा करो।’ पति-पत्नी का हृदय प्रेम में पिघला हुआ है, देहका भान नहीं है। श्रीकृष्ण-दर्शन में अतिशय तन्मयता हुई है। तन्मयता में पति-पत्नी कीर्तन करते हैं-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
पूज्यनीय ब्रह्मलीन श्री रामचंद्र डोंगरे जी महाराज के भागवत प्रवचन का एक अंश-