श्वेता पुरोहित-
(रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदासजी की मुंख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरितपर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ)
गतांक से आगे –
श्रीरघुपती और लखनलाल बालकों के रुप में वहाँ आए और बोले ‘बाबा ! हमें चंदन लगा दो।’ बालकों की मधुर वाणी सुनकर और मनोहर रूप देखकर श्रीगोस्वामीजी चंदन घिसना भूल गये, वे टकटकी लगाकर उसे देखने लगे।
हनुमानजी ने सोचा की ये इस बार भी धोखा न खा जाय, अतः तोते का रुप धारण कर चेतावनी देते हुए यह दोहा कहा-
चित्रकूट के घाट पर भइ संतन्ह की भीर ।
तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर ॥
श्रीहनुमानजी का कहा हुआ यह दोहा जैसे ही गोस्वामीजी ने सुना तो प्रभु को पहचान कर उनका शरीर पुलकायमान हो उठा। वे अतृप्त नेत्रों से भगवान श्रीराम की मनमोहिनी छबिसुधा का पान करने लगे। देह की सुध भूल गयी। आँखों से प्रेमाश्रुओंणकी सरीता बह चली। अब चंदन कौन घिंसें ! प्रभु ने पुनः कहा ‘बाबा ! हमें चंदन लगा दो !’ पर सुनता कौन ? वे लगभग बेसुध पडे थे।
भगवान ने स्वयं अपने करकमल से चंदन लेकर अपने ललाट पर तो लगाया ही श्रीगोस्वामीजी के ललाट पर भी तिलक करके मानो उन्हें भक्त सम्राट, कवि सम्राट तथा सभी रामभक्तों के हृदय सम्राट बना दिया।
इस प्रकार भक्तवांछा कल्पतरु प्रभु गोस्वामीजी को दर्शन देकर अंतर्धान हो गये। प्रभु के अंतर्धान होते ही गोस्वामीजी प्रभु विरह में मुर्च्छित हो गये। बडी देर बाद जब होश आया तो दिनभर आहें भरते रहे। रात्री के समय श्रीहनुमानजी ने प्रकट होकर वरदान दिया की आप अधीर न हों, आपको भगवान की नित्यलीला-विहार का दर्शन होता रहेगा।
उस दिन से श्रीगोस्वामीजी की भक्ति महिमा सर्वत्र परिव्याप्त हो गई। लोगों को गोस्वामीजी के दर्शन से परमशांती तथा रामप्रेम के अलौकीक भाव तरंग प्राप्त होते थे।
एक दिन श्रीगोस्वामीजी कामदगिरि की परिक्रमा करके श्रीलक्ष्मण पहाडी पर जा रहे थे तो मार्ग में एक अत्यंत शुभ्रवर्ण का चंद्रोपम सुंदर सर्प दिखायी पडा। उनकी दृष्टी पडते ही उस सर्प का संपुर्ण पाप नष्ट हो गया। उसे पुर्वकर्म की स्मृति हो आयी और उसने अत्यंत दीन होकर प्रार्थना की ‘हे रामभक्तशिरोमणे ! अपने करकमल से स्पर्श कर मेरा उद्धार कीजिए।
तुलसीदासजी ने ज्योंही उस सर्प का स्पर्श किया, त्योंही सर्प के स्थानपर एक महात्मा प्रकट हो गये । उन्होंने अपना नाम योगश्रीमुनी बताया और कहा कि संत तथा भगवंतकी सेवा करने के लिए प्राप्त संपत्ति का मैने दुरुपयोग किया था। फलतः यह अधमयोनी मुझे प्राप्त हुई थी। अब आपकी कृपा से मेरा उद्धार हो गया। ऐसा कहकर पुनि पुनि दण्डवत करके वे महात्मा अपने स्थान को चले गये।
इस प्रसंग से गोस्वामीजी का प्रभाव और भी बढ गया और उनकी कुटीपर दर्शनार्थीयों की भीड होने लगी। पर ये सब गोस्वामीजी को कभी भी पसंद नही था। उन्होंने ‘लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु।’ मानकर जहाँ पर वे रहते थे उस गुफा से बाहर निकलना ही बंद कर दिया।
अस प्रभु दीन बंधु हरि कारण रहित दयाल तुलसी दास सठ ताहि भज छाँड़ि कपट जंजाल
क्रमशः….(१८)
सियावर रामचन्द्र की जय 🙏 🚩
पवनसुत हनुमान की जय 🙏🚩
तुलसीदासजी की जय 🙏🌷