श्वेता पुरोहित। (रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसी दास जी की मुख्यतः श्रीमद बेनी माधव दास जी विरचीत मूल गोसाईचरित पर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ)
श्रीनरहरी स्वामी अयोध्या में तुलसी दास जी को पाणिनीय व्याकरण का अभ्यास कराने लगे। शिष्य की अलौकिक धारणा शक्ति, सांसारीक पदार्थों से वैराग्य, और भगवान साकेत विहारी के प्रति अपार भक्ति देखकर श्रीनरहरिदासजी मन ही मन बडे प्रसन्न होते और नित्य प्रति भूरि-भूरि आशिर्वाद देते ।
एक दिन श्रीगुरु-चरणों की सेवा करते समय श्रीगोस्वामीजी ने जब अपनी जन्म से लेकर अब तक की समस्त करुण कहानी कह सुनाई, तो दयालु हृदय गुरुदेव की आँखें भर आयी।
श्रीगुरु को द्रवित देखकर तुलसीदास जी भी हिचकियाँ बाँधकर रोने लगे। उस समय की गुरु-शिष्य की भाव दशा का वर्णन करते नहीं बनता। बहुत देर बाद धैर्य धारणकर नरहरी स्वामी ने तुलसी दास जी को भगवान शिव और माता पार्वतीके अहैतुक अनुग्रह का प्रसंग सुनाकर धीरज बँधाया। उसी दिनसे इनकी उमा-महेश्वर के प्रति अपार श्रद्धा हो गई।
दस महिने अवध में रहने के पश्चात जब सरयू-घाघरा संगम पर स्थित सूकरक्षेत्र में पौष महिने का कल्पवास नामक पुण्यपर्व लगा, तो स्वामी नरहरिदासजी अपने शिष्य को लेकर वहाँ पहुँचे। और लगता है वहीं पर उनका मन रम गया। अतः वहाँपर पाँच वर्ष उन्होंने वास्तव्य किया।
जब इन्होंने देखा कि शिष्य को व्याकरण का अच्छा बोध हो गया है, बुद्धि शास्त्रों के गूढ़ तत्त्वों को समझने योग्य हो गई है, तब महेश्वर के आदेश का स्मरण कर तुलसीदासजी को श्रीरामचरितमानस की कथा सुनाने लगे। गंभीर विषयों को पुनः पुनः सुनाते और कोई भी प्रसंग तब तक सुनाते समझाते रहते जब तक कि इनको सम्यक प्रकार से बोध न हो जाता। श्रीमद गोस्वामी तुलसीदासजी ने इस प्रसंग को रामचरितमानस में अंकीत किया-
मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत ।
समझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत ॥
तदपि कही गुर बारहि बारा ।
समुझि परी कछु मति अनुसारा ॥
भावार्थ: फिर वही कथा मैंने वाराह क्षेत्र में अपने गुरुजी से सुनी, परन्तु उस समय मैं लड़कपन के कारण बहुत बेसमझ था, इससे उसको उस प्रकार (अच्छी तरह) समझा नहीं। तो भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ में आई। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जाएगी, जिससे मेरे मन को संतोष हो।
रामचरितमानस, बालकाण्ड 30 (क)
कुछ दिनों बाद काशी में कोई पुण्यपर्व लगा। अतः नरहरि स्वामी ने सशिष्य काशी को प्रस्थान किया। मार्ग में अनेकों जगह विश्राम करते हुए, लोगों को अपने दर्शन स्पर्श और समागम से कृतार्थ करते हुए विचरते-विहरते काशी पहुँचे और पंचगंगा घाटपर, जहाँ पर कलिपावनावतार परमाचार्य श्री स्वामी रामानंदाचार्यजी विराजमान हुआ करते थे, वहीं आसन जमाया।
श्रीनरहरि स्वामी की जय, जय श्री तुलसी दास जी
क्रमशः …. भाग (९)