श्वेता पुरोहित। (रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसी दास जी की मुंख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरितपर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ )
गतांक से आगे –
प्रभु-मिलन की अत्यंत उत्कट इच्छा से प्रेरित होकर गोस्वामी जी चित्रकूट को चले। खान पान बिसराये, देह की सुधि भूलकर उन्मत्त की भाँती कभी हँसते, कभी रोते, कभी चलते, कभी बैठ जाते ।
कभी कभी तो अपनी करनी पर ध्यान जाता तो निराश होकर पीछे लौटने लगते, परंतु दूसरे ही क्षण जब प्रभु सुभाऊ का स्मरण होता, तो अत्यंत उतावली के साथ दौड पडते। इस प्रकार भाव सिंधु हिलोरे लेते हुए चित्रकूट पहुँचकर श्री राम घाट पर आसन जमाया।
एकदिन श्रीकामदगिरि की परिक्रमा कर रहे थे, तो देखा कि अत्यंत ही सुघर-सलोने, ‘स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन’ ऐसे दो राजकुमार हरे रंग के वेष में हरे रंग के ही घोडों पर आरुढ होकर आखेट के लिए वन की ओर जा रहे है। उन्हें देखकर गोस्वामीजी मुग्ध हो गये। पर कोई राजकुमार है ऐसा सोचकर फिर परिक्रमा मे लग गए।
थोडी देर में जब श्रीहनुमान जी ने प्रकट होकर पूँछा ‘क्या आपने प्रभु का दर्शन किया?’ तब गोस्वामी जी ने कहा ‘दर्शन तो नहीं हुए, हाँ दो राजकुमार घोडों पर चढे हुए अभी अभी यहाँ से गुजरे है। उन्हें देखा पर कोई शिकारी है ऐसा सोचकर मैंने दृष्टि फेर ली’ हनुमानजी ने कहा ‘वह प्रभु ही थे।’ तब तो गोस्वामी जी को बडा ही पश्चात्ताप हुआ।
यथा-
लोचन रहे बैरी होय ।
जानि बूझि अकाज कीन्हों दयो भुवमें गोय ॥
अवगति जूँ तेरी गति न जानौं रह्यौं जागत सोय ।
सबै रूपकी अवधि मेरे निकसि गये ढिग होय ॥
कर्म हीनहिं पाइ हिरा दियो पलमें खोय ।
तुलसीदास जुँ राम बिछुरे कहौ कैसी होय ॥
तब श्रीहनुमानजी ने धैर्य बँधाया और कहा कि चिंता मत करो, कल प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे। संवत १६०७ माघ मास की मौनी अमावास्या, बुधवार को प्रातःकाल श्रीमद गोस्वामी तुलसीदासजी रामघाटपर स्नान से निवृत्त होकर पूजा के लिए चंदन घिस रहे थे ।
तभी श्रीरघुपती और लखनलाल बालकों के रुप में वहाँ आए और बोले ‘बाबा ! हमें चंदन लगा दो।’ बालकों की मधुर वाणी सुनकर और मनोहर रूप देखकर श्रीगोस्वामी जी चंदन घिसना भूल गये, वे टकटकी लगाकर उसे देखने लगे।
हनुमान जी ने सोचा की ये इस बार भी धोखा न खा जाय, अतः तोते का रुप धारण कर चेतावनी देते हुए यह दोहा कहा-
चित्रकूट के घाट पर भइ संतन्ह की भीर ।
तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर ॥
सियावर रामचन्द्र की जय
पवनसुत हनुमान की जय
तुलसीदास जी की हो जय
क्रमशः… (भाग – १७ )