श्वेता पुरोहित। (रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसी दास जी की मुंख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरितपर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ )
गतांक से आगे –
गोस्वामीजी के चले जाने पर उनकी सती-साध्वी पती परायणा पत्नी ने पती वियोग में तत्काल अपने प्राण त्याग दिये। यह बात संवत १५८९, आषाढ कृष्ण दशमी, बुधवार की है।
श्री तुलसी दास जी ने तीर्थराज प्रयाग पहुँच कर त्रिवेणी में स्नान किया और वहीं पर गृहस्थ वेष का विसर्जन कर विरक्त हो गये। वहाँ से अयोध्या के लिए चल पडे। अयोध्या ही में चातुर्मास किया इसके बाद उन्होंने श्रीजगन्नाथ पुरी को प्रस्थान किया।
अयोध्या से पुरी पहुँचने में पच्चीसों जगह रात्री विश्राम करना पडा था। दुबौली नामक ग्राम में गोस्वामीजी स्नान करके एकान्त बैठे थे, उसी समय कुछ बालक वहाँ आकर शोर मचाने लगे, वे बच्चे शरारती थे। वे उद्दण्डतावश गोसाईंजी पर धूल और मिट्टी उड़ाने लगे ।
तुलसीदासजी जाप कर रहे थे, अतः पहले तो उन्होंने बालक समझकर कर कुछ अनदेखी की पर जैसे की रामचरितमानस में कहा है-
सुनु प्रभु बहुत अवज्ञा किये ।
उपज क्रोध ज्ञानिन्ह के हिये ॥
जब अपराध सहनशक्ति से बाहर हो गया तो जाप छोडकर उन्होंने शरारती बालकों की ओर देखा तो सब बालक तो डरसे भाग गये, परंतु हरिराम नामक एक बालक फिर भी डटा रहा और धूल मिट्टी फेंकता रहा। परिणामतः गोस्वामीजी ने उसे शाप देकर ब्रह्मराक्षस (प्रेत) बना दिया ।
यह लीला इसलीये हुई क्योंकी यही प्रेत आगें चलकर गोस्वामीजी की हनुमानजी से भेंट कराने में निमित्त बनेगा। वहाँ से आगे गोस्वामीजी चेफुल नामक गाँव मे पहुँचे। वहाँ चारुकुँवरी नामक एक विधवा ब्राह्मणी रहती थी।
वह निर्धन वूद्धा चर्खा कातकर जैसे तैसे जीवन चलाती थी। परंतु संतों की सेवा उसका स्वभाव था। अतः अपने उत्पन्न से कम से कम में अपना निर्वाह कर शेष धन संतसेवा में व्यय करती। उसकी इसी संतसेवा के प्रभाव से आज श्रीमद गोस्वामी तुलसी दास जी उसके अतिथि बनें, जैसे शबरी के घर रघुपती पधारें हो। बडे भाव से वूद्धा ने गोस्वामीजी का आथित्य-सत्कार किया। उसकी स्थिती गोस्वामीजी से छिपी नही थी। अतः उन्होंने वरदान दिया की तुम जिस वस्तुपर हाथ धरोगी वह अक्षय हो जायेगी। उन पदार्थोंसे खूब संतसेवा करो। कुछ घटेगा नही।
जगन्नाथपुरी पहुँचकर प्रभुका दर्शन करके भावविभोर हो उठे। वहाँपर मन लगने से कुछ दिन वहीं वास्तव्य किया। वहीं पर साधना से मिलते हुए अवकाश में श्रीमद्वाल्मीकियरामायण को स्वहस्ताक्षर में लिखकर एक प्रति तैयार की।
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥
जय श्री तुलसीदासजी
क्रमशः… (भाग – १४ )