श्वेता पुरोहित। (रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसी दास जी की मुंख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरितपर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ )
गतांक से आगे –
भक्तमाल की भक्ति रस बोधिनी टिका में श्री प्रिया दास जी उल्लेख करते है –
तियो सों सनेह बिन पूछे पिता गेह गई, भूली सुधि देह भजे वाही ठौर आए है ।
बधू अति लाज भई रिस सों निकसि गई प्रीति राम नई तन हाड चाम छाए है ॥
श्री तुलसी दास जी का अपनी पत्नी पर विशेष स्नेह था। इसलिये जब भी वह कभी मायके जाना चाहती, गोस्वामीजी अनुमती नहीं देते। इस प्रकार पाँच वर्ष की अवधि एक पल के समान बीत गया ।
एक दिन एक प्रेमी भक्त के आग्रह पर तुलसी दास जी बरखासन गाँव गये थे। इसी बीच रत्नावलीजी का भाई आ गया, वे भी बहुत उत्कण्ठित थी अपनी माता का दर्शन करने तथा गाँव की सखी-सहेलियों से मिलने को। पाँच वर्ष के अन्दर वहाँ से कितने बुलावे भी आये परन्तु पती के द्वारा अनुमति नही मिलने से न जा सकी थीं। स्त्रीसुलभ स्वभाव के वशीभूत होकर आज वह अवसर पाकर चुपके से भाई के साथ मायके चली गईं ।
जब सायंकाल को तुलसीदासजी घर आये और पत्नी को नहीं देखा तो उन्हें बडे ही सूनेपन का अनुभव हुआ। मानो सर्वस्व खो गया। दासी से सब बात विदित हुई। फिर क्या था, तुरंत ही चल पडे ससुराल को। रात्रि का समय था, जमुना बढी हुई थी, जैसे तैसे पार करके आधी रात को वहाँ पहुँचे। लोग प्रगाढ निद्रा मे सो रहे थे।
इन्होंने आवाज लगाई पती का स्वर पहचान कर रत्नावलीजी ने ससंभ्रम उठकर किवाड खोले और इन्हें गीले वस्त्रों से लिपटे देखकर हँसकर बोली- ‘अहो! आप तो ऐसे प्रेमान्ध हो गये है कि अंधेरी रात, भरी जमुना, लोक-लाज एवं अनमोल जीवन इनका कुछ भी ख्याल नहीं रहा ।
हाड मांस को देह मम तापर जितनी प्रीति ।
तिसु आधी जो राम प्रति अवसि मिटिहि भव भीति ॥
पत्नी के वचन बाणसम हृदय मे चुभ गए। तुरंत वहाँ से उलटे पाँव चल दिये। चलते समय चित्त में अपने गुरुदेव (श्रीनरहरीदासजी) का दोहा गुँजने लगा-
नरहरी कंचन कामिनी रहिये इन्हतें दूर ।
जो चाहिय कल्याण निज रामदरस भरपूर ॥
रत्नावलीजी का भाई जिजाजी को मनाने भागा दौडा पहुँचा। पर गोस्वामीजी मोह निद्रा से जाग चुके थे। उस समय की उनकी मनोदशा विनयपत्रिका मे उनसे इस प्रकार अंकीत हुई-
अबलौ नसानी, अब न नसैहौं ।
राम-कृपा भव निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं।
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वै नहसैहौं।
मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति पद कमल बसैहौ ॥
नरहरी कंचन कामिनी रहिये इन्हतें दूर जो चाहिऐ कल्याण निज रामदरस भरपूर।
जय श्री तुलसीदासजी
क्रमशः… (भाग – १३ )