श्वेता पुरोहित। (रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसी दास जी की मुख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरित पर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ )
गतांक से आगे –
पं दीनबंधु पाठक मंत्रमुग्ध होकर गोस्वामीजी की रामकथा सुनते रहे। फिर लोगों से व्यासजी का नाम-गाँव पूँछकर अपने घर चले गये। पंडितजी की एक विवाहयोग्य सुशीला कन्या थी। बहुत खोजने पर भी उन्हे कन्या के स्वरुपानुरुप वर नही मिल रहा था, अतः इन्होंने चिंतीत होकर श्रीजगदंबा पार्वतीजी की शरण ली। पार्वती अंबा ने इन्हें स्वप्नमें श्री तुलसी दास जी से कन्या का विवाह करने का आदेश दिया।
ये तुलसी दास जी के पांडित्य एवं शोभा से मोहित तो थे ही, भगवती की आज्ञा से और भी भाव बढ़ गया। फिर तो बैसाख मास में आकर पंडितजी ने तुलसी दास जी को अपना अभिष्ट निवेदन करते हुए श्रीजगदंबा की आज्ञा भी सुनाई। गोस्वामीजी ने ब्याह को वैराग्य तथा भक्ति में बाधक विचारकर अस्विकार कर दिया। परंतु ब्राह्मण को तो माँ गौरी का आदेश मिला था अतः वह द्वारपर धरना देकर बैठ गया। उसने अन्न-जलका त्याग कर घोषणा कर दी कि यदि आप मेरी कन्या को स्वीकार नहीं करते हैं तो मैं आपके द्वारपर प्राण छोड दूँगा।
फलतः विवश होकर श्रीगोस्वामीजी ने दूसरे दिन स्विकृती दे ही दी। तब पंडितजी ने अन्न जल ग्रहण किया और आनंदीत चित्तसे घर जाकर सुंदर लग्न शोधवाकर पुरोहित द्वारा लग्न पत्रिका इन्हें भेज दी।
श्रीमद बेनीमाधवदासजी ने मूल गोसाईचरित में गोस्वामीजी और रत्नावली जी के मंगल विवाह प्रसंग का वर्णन इस प्रकार किया है-
पन्द्रह सै पार तिरासी विषै ।
सुभ जेठ सुदी गुरु तेरसि पै ।
अधिराति लगै जुँ फिरै भँवरी ।
दुलहा दुलही की परी पँवरी ॥
- संवत् 1583 के शुभ ज्येष्ठमासके शुक्लपक्षके गुरुवारको जब त्रयोदशी तिथि थी, अर्धरात्रीके शुभलग्न में जैसे ही भाँवरी होने लगी तो दुलहा तुलसीदास और दुलही रत्नावलीकी (फेरों के लिए) पँवरी पडने लगी।
बडे उल्लास के साथ विवाह संपन्न हुआ। और एक शुभ मुहूर्त में वधू को विदा कराया गया। तुलसी दास जी अपनी वधू को राजापूर लेकर आये। रत्नावलीजी अपने नामानुसार ही रमणी रत्न थी। अपने सुशील और प्रेममयी व्यवहार से शिघ्र ही उन्होंने अपने पती का हृदय जीत लिया।
जिसकी लागी है लगन सीताराम में ऊसका दिया भी जलेगा तूफान में तन का दिया मन कि बाती हरि भजन गाते रहो जय श्री तुलसी दास जी ।
क्रमशः … (भाग १२)