श्वेता पुरोहित। (रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसी दास जी की मुंख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरितपर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ )
गतांक से आगे –
नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी।
मै सेवक समेत सुतनारी॥
अपना समग्र ज्ञान-वैभव श्री तुलसी दास जी को सौंपकर श्रीशेषसनातनजी ने अपनी इहलीला संवरण की। श्रीगोस्वामीजी ने बडी श्रद्धापुर्वक उनकी अन्त्येष्टि की।
शिक्षागुरु श्रीशेषसनातनजी का वियोग होने से अब इनका मन काशीपुरी मे नहीं लगता था। अतः दीक्षागुरु श्रीनरहरिदासजी का स्मरण कर श्रीचित्रकूट को चल दिये।
परंतु संयोग की बात, मार्ग में ही एक संतद्वारा पता चला कि वे भी साकेतलोक सिधार चुके है। तब तो इनको बडा ही दुख हुआ। बहुत देर सोच-विचार के पश्चात अपनी जन्मभूमी का दर्शन करके यात्रा करने का विचार किया।
राजापूर मे पहुँच कर श्रीगोस्वामीजी ने देखा कि उनका घर खंडहर हो चुका है, वंश का विनाश हो गया है। एक भाट मिला। उसने बताया कि जिस दिन चुनियाँ दासी के मृत्यू के बाद हरिपुर से आकर नाई ने आपके पिता से आपको लिवा लाने की प्रार्थना की और आपके पिता ने अत्यंत निष्ठुरतापुर्वक उत्तर दिया, उस दिन गाँव में एक बडे महात्मा आये हुए थे।
उन्होंने जब पिता का पुत्र के प्रति इतना निष्ठूर व्यवहार सुना तो क्षुभित होकर शाप दे दिया कि ऐसे कुल का नाश हो जाय। परिणामतः छः महिने के अंदर ही आपके पिता का देहावसान हो गया और दस वर्ष के अंदर संपुर्ण कुल का सफाया हो गया।
अब कुल में कोई जल देनेवाला नही रहा।’ यह सुनकर तुलसीदासजी को बडा शोक हुआ। फिर कर्तव्य से प्रेरित हो विधिपुर्वक सबका श्राद्ध-तर्पण किया। तत्पश्चात जब वहाँ से आगे चलने को प्रस्तुत हुए तो गाँव के लोगों ने बडा आग्रह किया वहीं रहने का। गोस्वामीजी ने सहज भाव से स्वीकृति दे दी।
सभी ग्रामवासीयों ने मिलकर इनके रहने के लिए सुंदर घर बनवा दिया। अब तुलसीदासजी वहीं रहकर गाँववालों को नित्य-प्रति श्रीरामकथा सुनाने लगे। जिसका श्रवण कर ग्रामवासी उनपर अत्यंत सुप्रसन्न रहने लगे।
श्रीयमुनाजी के उस पार तारिपतो नामक गाँव था। उसमे पंडित दीनबंधू पाठक नाम के एक भरद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण रहते थे। कार्तिक मास में यमद्वितीया का पुण्यपर्व लगने पर इन्होंने सपरिवार इस पार आकर यमुना स्नान कर यथा शक्ति दान-पुण्य किया।
लोगों से प्रसिद्धि सुनकर गोस्वामीजी की रामकथा में जा पहुँचे। पंडितजी ने देखा कथाव्यास का दर्शन बडा अद्भुत है, वाणी में लालित्य है, जैसे की अमृत की वर्षा हो रही हो।
जय श्रीराम
जय श्री तुलसीदासजी
क्रमशः… (भाग – ११)