श्वेता पुरोहित-
(रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदासजी की मुंख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरित पर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ)
गतांक से आगे –
श्रीहनुमानजी ने प्रकट होकर पुनः एकबार रामचरितमानस का गोस्वामीजी से आद्योपान्त श्रवण करके उनको आशिर्वाद दिया कि आपकी यह कविता त्रैलोक्यवशकारिणी होगी ।
उन्ही दिनों अयोध्या में मिथिला के सुप्रसिद्ध संत श्रीरुपारुण स्वामी आए थे। वे सदा मिथिलेशजी के भावमे मग्न रहते थे। जगज्जननी श्रीजानकीजी में उनका पुत्रीभाव था। एक दिन वे श्रीतुलसीदासजी का दर्शन करने आए तो उन्हें परम अधिकारी जानकर गोसाईंजी ने मनुष्यों मे सर्वप्रथम रामचरितमानस उन्हीं को सुनाया।
इसके बाद तो दिन दूना रात चौगुना रामचरितमानस का प्रचार होने लगा। सण्डीले के श्रीनंदलाल स्वामी के शिष्य श्रीदयालदासजी मानस की एक प्रतिलिप तैयार करके ले गये और उन्होंने अपने गुरुदेव को सुनाया और यमुनातट पर तीन वर्षतक महाभागवत श्रीरसखानजी को सुनाया।
इसके बाद बहुत सी प्रतिलिपियाँ लोगों ने कर लीं। स्वयं गोस्वामीजीने भी कई प्रतियाँ लिखी।
कुछ दिनों बाद श्रीसीतारघुपती के आदेशानुसार गोस्वामीजी अयोध्या से काशी आए और भगवान शिव और माता पार्वती को रामचरितमानस का एक पारायण सुनाया तथा ग्रंथ के संबंध में भगवान शिव की सम्मति जानने के लिये ग्रंथ को रात्रि में शिवलिंग के समीप ही रख दिया।
काशी में इस बात का प्रचार हो गया अतः प्रातःकाल जब पट खुला तो यह जानने के लिए कि शिवजी ने क्या लिखा है, काशीवासियों की भीड़ लग गई। सब लोगों ने देखा कि ग्रंथ पर दिव्य अक्षरों में ‘सत्यं शिवं सुंदरम्’ लिखा हुआ है। इन्ही शब्दों की आकाशवाणी भी उसी समय हुई जो सबने सुनी।
फिर तो काशीवासी बडे ही प्रभावित हुए। सर्वत्र तुलसीदासजी का जयजयकार होने लगी। परंतु एक ओर जहाँ सब लोग इस शुभ संवाद से हर्षोल्लासित हो रहे थे वहीं दूसरी ओर यंत्र मंत्र करके ढोंग धत्तूरों से जीविका चलाने वाले पाखण्डी पण्डितों का एक समुदाय बडा चिंतीत हो रहा था कि यदि इस प्रसादित ग्रंथ का जगत में प्रचार हुआ तो हम लोगों की रोजी मारी जायेगी। सब लोग इसके पाठ से अपना अभिष्ट सिद्ध कर लेंगे, फिर हमें कौन पूछेगा।
अतः पण्डित लोगों ने दल बाँध कर ग्रंथ की निंदा करना प्रारंभ किया कि यह तो भाषा ग्रंथ है, इससे कुछ होने जानेका नहीं। भाषा का मूल तो संस्कृत है, भाषा तो शाखा है आदि आदि। बात बढते बढते गोस्वामीजी तक पहुँची । उन्होंने उन पंडितों को उत्तर दिया-
भाषा साखा है सही सुरवानी है मूल ।
मूल रहत है धूल में साखा मे फल फूल ॥
का भाषा का संसकृत प्रेम चाहिए साँच ।
काम जौ आवै कामरी का लै करिय कुमाच ॥
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥
श्री गौरी शंकर की जय 🙏 🚩
सियावर रामचन्द्र की जय 🙏 🚩
पवनसुत हनुमान की जय 🙏🚩
रामप्रेममूर्ति तुलसीदासजी की जय 🙏🌷
क्रमशः (भाग – २५)