श्वेता पुरोहित। वर्तमान समय में मिथुन मास में सायं सूर्यास्त से दो घंटे के भीतर यदि किसी खुले स्थान में जहाँ बिजली का प्रकाश न हो तब आकाश के तारे साफ दिखते हैं। मिथुन मास में उत्तर पश्चिम दिशा में प्रजापति मण्डल का प्रजापति तारा दिखता है। ब्रह्महृदय तारा थोड़ा पहले ही अस्त हो चुका है।
बहुत ऊपर देखने पर सप्तर्षि दिखता है। इस मण्डल के दो तारे क्रतु व पुलह, जो एक ही रेखा पर हैं और उसी रेखा का एक सिरा ध्रुवतारे की और संकेत करता है। इन ध्रुवसूचक दो तारों से दक्षिण की ओर एक चमकीला तारा दिखता है। इसी चमकीले तारे व पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र मण्डल के बीच बहुत से तारे साँप की आकृति बनाते हैं। ये तारे कुछ मन्द कान्ति है। इसी तारामण्डल को देखकर राजा नहुष के साथ इन्हें जोड़ा गया था। पुराणों में प्रसिद्ध है कि राजा नहुष अगस्त्य ऋषि के शाप से साँप बन गया था।
संस्कृत में नहुष शब्द को सर्पभेद के रूप में भी माना जाता है। राजा नहुष, चन्द्रवंशी पुरुरवा का पौत्र व राजा आयु का पुत्र था। महाभारत में विवरण आता है कि वह एक बार आकाश में विमान से भ्रमण कर रहा था। नहुष को बहुत अधिक अभिमान था कि देव, दानव, राक्षस, यक्ष, नागादि सब उसे कर देते हैं। कहते हैं कि अनेक ब्रह्मर्षि उसकी पालकी ढोते थे। एक बार पालकी ढोते हुए उसका पैर मुनि अगस्त्य को लग गया था, जिससे क्रुद्ध होकर अगस्त्य ने उसे शाप दे दिया। शाप के प्रभाव से वह आकाश में अधोमुख होकर सर्प बनकर गिरने लगा। तब दीनता दिखलाने पर अगस्त्य ने उसे कहा था कि धर्मराज युधिष्ठिर ही तुझे मेरे शाप से मुक्त करेंगे। युधिष्ठिर से मुक्ति पाकर वह आकाश में स्थित हुआ। अगस्त्य तारा भी आकाश में है ही।
स्वस्ति तेऽस्तु महाराज ! गमिष्यामि दिवं पुनः॥
(महाभारत)
सप्तर्षि मण्डल का उल्लेख पहचानने में सुविधा के कारण किया गया है। अंग्रेजी में इसे हाइड्रा (बड़ा साँप) कहते हैं। श्लेषा नक्षत्र प्रायः इस सर्प के सिर पर पड़ता है। आकाशीय नक्षत्र मण्डलों को ही प्रायः पौराणिक आख्यानों का रूप दिया गया प्रतीत होता है। भारतीय व यूनानी आख्यानों में समान रूप से देवकृपा के कारण नक्षत्रों में स्थान पा जाने की धारणा है।