श्वेता पुरोहित-
श्रीमद्देवीभागवत पुराण में इस कथा का उल्लेख है। यह संसार माया के तीनों गुणों से व्याप्त है। राजा धर्म करें और तपस्वी तप करें – यह स्वाभाविक कर्म है, परंतु सभी प्राणियों का मन गुणों से आबद्ध रहने के कारण विशुद्ध नहीं रह पाता। राजा लोग काम और क्रोध से अभिभूत रहते हैं और उसी प्रकार तपस्वीगण भी लोभ और अहंकारयुक्त होकर कठोर तपस्या करते हैं।
क्षत्रिय गण रजो गुण से युक्त होकर यज्ञ करते थे, वैसे ही ब्राह्मण भी थे । कोई भी सत्त्वगुण से युक्त नहीं था। ऋषि ने राजा को शाप दिया और तब राजा ने भी मुनि को शाप दे दिया। इस प्रकार दैववशात् दोनों को बहुत दुःख प्राप्त हुआ ।
प्राचीन समय की बात है – भगवान् श्रीराम के इक्ष्याकु वंश में निमि नाम के एक प्रतापी राजा हुए । वे इक्ष्याकु के बारहवें पुत्र थे । वे बड़े गुणी, धर्मज्ञ और दानी थे । यज्ञ-हवन आदि में उनकी विशेष रुचि थी । एक बार उनके मन में एक विशाल यज्ञ करने की इच्छा उत्पन्न हुई । उन्होंने अपने पिता इक्ष्याकु की आज्ञा लेकर यज्ञ की सारी सामग्री तैयार करवा ली । अंगिरा, वामदेव, गौतम, पुलत्त्व, ऋचीक और पुलह आदि वेदों के ज्ञाता और यज्ञ कार्य कराने में कुशल तपस्वी मुनियों को आमंत्रित कर लिया ।
जब यज्ञ की तैयारियाँ पूर्ण हो गईं, तब राजा निमि ने अपने गुरु वसिष्ठ की पूजा की और नम्रता के साथ उनसे कहा – “गुरुवर! मैं एक ऐसा यज्ञ करना चाहता हूँ, जिससे मुझे भगवती माता की कृपा दृष्टि प्राप्त हो सके । आप इस यज्ञ के आचार्य बनने की कृपा करें । आप एक सर्वज्ञानी पुरुष और हमारे कुल-गुरु हैं । अतः अपना यह कार्य मैं आपको सौंपता हूँ ।”
राजा निमि की बात सुनकर वसिष्ठ मुनि बोले – “राजन! आपसे पहले मुझे इन्द्र ने यज्ञ कराने के लिए आमंत्रित कर रखा है । वे पराशक्ति नामक यज्ञ करा रहे हैं । उन्होंने पाँच सौ वर्षों तक यज्ञ करने की दीक्षा ली है । अतः राजन! आप प्रतीक्षा करें । इन्द्र का यज्ञ समाप्त हो जाने के बाद ही मैं आपका यज्ञ पूर्ण करवा सकता हूँ ।”
निमि ने अनेक प्रकार से वसिष्ठजी को रोकने का प्रयास किया, किंतु वे इन्द्र के यज्ञ में चले गए । यज्ञ के उपलक्ष्य में निमि अनेक ऋषि-मुनियों को आमंत्रित कर चुके थे । यज्ञ की सम्पूर्ण व्यवस्था हो चुकी थी । अतः उन्होंने गौतम ऋषि को यज्ञ का आचार्य बनाया और यज्ञ की दीक्षा ले ली । बहुत-सा धन और गायें ऋषि-मुनियों को दान में दी गईं । इधर जब इन्द्र का यज्ञ समाप्त हुआ तो निमि से मिलने महर्षि वसिष्ठ उनके महल पर पहुँचे । निमि उस समय सोया हुए थे, इसलिए महर्षि के बार-बार कहने पर भी सेवकों ने उन्हें नहीं जगाया।
महर्षि वसिष्ठ ने इसे अपना अपमान समझा और राजा निमि को शाप देते हुए बोले – “राजन! तुमने मुझ जैसे गुरु को छोड़कर दूसरे को अपना गुरु बना लिया । मेरा अपमान करके यज्ञ में दीक्षित हो गए । मेरे मना करने पर भी तुम रुके नहीं, अतः तुम विदेह (देह रहित) हो जाओ । तुम्हारा शरीर नष्ट हो जाए ।”
महर्षि का यह शाप सुनकर सेवकों ने शीघ्र ही राजा निमि को जगाया और महर्षि वसिष्ठ के शाप देने की बात बताई । निमि दौड़े-दौड़े मुनि वसिष्ठ के पास पहुँचे और बोले – “गुरुवर ! मेरे अनेक बार प्रार्थना करने पर भी आपने उसे ठुकरा दिया और लोभ में आकर इन्द्र के यज्ञ में चले गए । ऐसा निंदित कर्म करने पर आपके मन में जरा भी संकोच नहीं हुआ? मुनिवर! वेदों और शास्त्रों का आपको पूर्ण ज्ञान है । फिर भी आपने क्रोध में आकर व्यर्थ ही मुझे शाप दे दिया । अतः मैं भी आपको शाप देता हूँ कि आपका भी यह शरीर नष्ट हो जाए ।” इस प्रकार वसिष्ठ और निमि – दोनों ही परस्पर शापग्रस्त हो गए।
एक-दूसरे को शाप देने के बाद दोनों ही चिंतित हो गए । वसिष्ठ के मन में उथल-पुथल आरम्भ हो गई । मन की शांति के लिए वे ब्रह्माजी की शरण में गए । उन्हें पूरी बात बताई और प्रार्थना करते हुए बोले – “पिताश्री ! निमि के शाप से उबरने के लिए मुझे क्या करना चाहिए? मैं पुन: शरीर धारण करूँगा तो उस समय मेरे पिता कौन होंगे – यह बताने की कृपा करें । मेरी इच्छा है कि दूसरे शरीर से संबद्ध होने पर भी मेरी स्थिति पूर्ववत् ही बनी रहे । मेरे इस शरीर में जैसा ज्ञान सुलभ है वैसा ही दूसरा शरीर पाने पर भी मुझे प्राप्त रहे । हे प्रभु! आप सृष्टि के रचनाकार हैं । अतः मेरी प्रसन्नता के लिए आप ऐसी व्यवस्था करने की कृपा करें ।”
ब्रह्माजी बोले – “पुत्र ! तुम मित्र और वरुण ऋषियों के तेज में प्रविष्ट होकर शांतिपूर्वक रहो । उचित समय आने पर तुम उन्हीं के द्वारा प्रकट होगे। इस प्रकार तुम्हारा जन्म मित्रावरुण कुल में होगा । नया शरीर पाकर भी तुम्हें ऐसी ही धार्मिक बुद्धि प्राप्त होगी । तुम प्राणियों के सुहृदय, वेदों के ज्ञाता, सर्वज्ञानी और सबसे सम्मान प्राप्त करोगे ।”
जिज्ञासा शांत हो जाने पर वसिष्ठजी ने परमपिता ब्रह्माजी के चरणों में मस्तक झुकाया और उनकी प्रदक्षिणा करके मित्रावरुण के आश्रम पर चले गए । उस आश्रम में सदा एक साथ रहने मित्र और वरुण नामक दोनों ऋषि विराजमान थे ।
वसिष्ठ मुनि ने अपने श्रेष्ठ स्थूल शरीर का त्याग कर दिया और सूक्ष्म शरीर से मित्रा और वरुण के शरीर में प्रविष्ट हो गए । अनेक वर्षों तक वसिष्ठ मुनि सूक्ष्म रूप में मित्रा और वरुण के शरीर में निवास करते रहे ।
एक दिन उर्वशी नामक एक सुंदर अप्सरा सखियों के साथ मित्रावरुण के आश्रम में आयी । उसके सौंदर्य को देखकर मुनि मित्रावरुण के चित्त मोहित हो गए । उस रूपयौवनसे सम्पन्न दिव्य अप्सराको देखकर वे दोनों देवता कामातुर हो गये और समस्त सुन्दर अंगोंवाली उस मनोरम देवकन्यासे कहने लगे – हे प्रशस्त अंगोंवाली ! विवश तथा व्याकुल हम दोनोंका तुम वरण कर लो और हे वरवर्णिनि ! तुम अपनी इच्छाके अनुसार इस स्थानपर विहार करो। उनके इस प्रकार कहनेपर वह देवी उर्वशी मन स्थिर करके मित्रावरुणके घरमें उन दोनोंके साथ विवश होकर रहने लगी। प्रिय दर्शनवाली वह अप्सरा उन दोनोंके भावोंको समझकर वहीं रहने लगी।
दैववशात् वहाँ रखे हुए एक आवरणरहित कुम्भमें दोनों का वीर्य स्खलित हो गया; और इस तेज के फलस्वरूप अत्यंत सुंदर दो मुनिकुमार उत्पन्न हुए । उनमें से एक बालक का नाम अगस्ति पड़ा और दूसरे का वसिष्ठ ।
महातपस्वी अगस्ति बाल्यावस्थामें ही वन चले गये और महाराज इक्ष्वाकुने अपने पुरोहितके रूपमें दूसरे बालक वसिष्ठका वरण कर लिया।
मित्रावरुण के तेज से उत्पन्न वे दोनों मुनिकुमार आगे चलकर महान तपस्वियों एवं ऋषियों में अग्रगण्य हुए । अगस्ति में तपस्या की अटूट श्रद्धा थी । अतः बचपन में ही वे वन में चले गए । एक बार राजा इक्ष्याकु मित्रावरुण के आश्रम में आए । वहाँ दूसरे बालक वसिष्ठ को उन्होंने अपने कुल-पुरोहित के रूप में चुन लिया । महाराज इक्ष्याकु ने वसिष्ठ के पालन-पोषण की समुचित व्यवस्था की । इस प्रकार राजा निमि के शाप के कारण महर्षि वसिष्ठ को मित्रावरुण के कुल में जन्म लेकर दूसरा शरीर धारण करना पड़ा । इसलिए ऋषि वसिष्ठ का नाम मैत्रावारुणि पड़ा।
इधर जिस समय वसिष्ठ मुनि ने निमि को शाप दिया था, वे यज्ञ में दीक्षित थे । उन्होंने जितने ऋषि-मुनियों को यज्ञ में आमंत्रित किया था, वे परस्पर विचार-विमर्श करने लगे कि धर्मात्मा निमि यज्ञ में दीक्षित हैं । अभी यज्ञ भी पूर्ण नहीं हुआ है और वे शाप में जल रहे हैं । ऐसी प्रतिकूल स्थिति में यज्ञ पूर्ण होने तक उनकी रक्षा करनी चाहिए । यह विचार कर उन्होंने मंत्रों की शक्ति से निमि के शरीर को सुरक्षित रखा । मंत्रों की शक्ति के कारण उनकी श्वास की गति समाप्त नहीं हुई । उनकी आत्मा शरीर में ही सुरक्षित रही । मुनियों ने पुष्प मालाओं और चन्दनों से उस आत्मा को सुपूजित कर रखा था ।
यज्ञ समाप्त होने पर इन्द्र आदि समस्त देवगण वहाँ पधारे । ऋषि-मुनियों ने उनकी स्तुति की । इससे देवता प्रसन्न हो गए । तब ऋषियों ने निमि की दयनीय दशा उन्हें बताई । देवताओं ने निमि से कहा – “राजन! हम तुम्हारे इस यज्ञ से प्रसन्न हैं, तुम कोई भी वरदान माँग लो । यज्ञ के प्रभाव से तुम्हें
सर्वोत्तम जन्म मिल सकता है । देव शरीर अथवा मानव शरीर – तुम्हें जो भी पसंद हो माँग सकते हो।”
निमि प्रार्थनापूर्वक बोले – “हे देवगण ! मेरी इच्छा है कि सम्पूर्ण प्राणी जिनके द्वारा देखते हैं, मुझे उसी वस्तु में रहने का सुअवसर प्राप्त हो । मैं समस्त प्राणियों के नेत्रों में वायु बनकर विचरण करूँ ।”
निमि की इच्छा जानकर देवेन्द्र बोले – “हे राजन! इसके लिए तुम भगवती दुर्गा की प्रार्थना करो । तुम्हारे यज्ञ से वे परम प्रसन्न हैं। उन्हीं की कृपा से तुम्हारा यह मनोरथ सिद्ध हो सकता है ।”
तब राजा निमि ने अनेक स्तोत्रों के द्वारा भगवती दुर्गा की आराधना की । इससे प्रसन्न होकर दुर्गा ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिए । देवी के दर्शन पाकर सभी आनन्द-मग्न हो गए । देवी को प्रसन्न देख राजा निमि बोले – “माते ! मुझे ऐसा निर्मल ज्ञान देने की कृपा करें, जिससे कि मैं सशरीर मुक्त हो सकूँ । साथ ही मेरी यह अभिलाषा है कि मुझे सभी प्राणियों के नेत्रों में निवास करने का अवसर प्राप्त हो ।”
तब प्रसन्न हुई देवेश्वरी जगदम्बाने कहा – तुम्हें निर्मल ज्ञान प्राप्त होगा, परंतु अभी तुम्हारा प्रारब्ध शेष है। समस्त प्राणियों के नेत्रों में तुम्हारा निवास भी होगा। तुम्हारे कारण ही प्राणियोंके नेत्रोंमें पलक गिराने की शक्ति होगी। तुम्हारे निवास के कारण ही मनुष्य, पशु तथा पक्षी ‘निमिष’ (पलक गिरानेवाले) तथा देवता ‘अनिमिष’ (पलक न गिरानेवाले) होंगे।
दुर्गा माता के अदृश्य हो जाने के बाद वहाँ उपस्थित मुनियों ने परस्पर परामर्श करके निमि के नष्ट होते स्थूल शरीर को सामने रखा और उस पर एक मथनी को फिराते हुए मंत्रोच्चारण करने लगे । इस मंथन से निमि के शरीर से एक बालक उत्पन्न हुआ । वह बालक रूप और गुणों में निमि के समान ही अद्वितीय था । मंथन से प्रकट होने के कारण उसे मिथि कहा गया, जबकि पिता के शरीर से निकलने के कारण वह जगत् में जनक नाम से विख्यात हुआ । इस प्रकार निमि से राजा जनक की उत्पत्ति हुई । निमि के विदेह होने के कारण उनके कुल में जितने नरेश हुए वे सभी ‘विदेह’ कहलाने लगे । इन्हीं राजा जनक ने गंगा नदी के तट पर मिथिला नाम का एक सुंदर नगर बसाया । जिनके यहाँ आगे चलकर सीता माता ने अवतार लिया ।
देवी के अन्तर्धान हो जानेपर वहाँ उपस्थित | मुनिगण विधिवत् विचार करके निमि के शरीर को ले आये और पुत्र प्राप्ति के लिये उस पर अरणिकाष्ठ रखकर वे महात्मा मन्त्र पढ़कर मन्त्र होम के द्वारा निमि के देहका मन्थन करने लगे।
तब अरणि के मन्थन से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो समस्त लक्षणों से सम्पन्न और साक्षात् दूसरे निमि की भाँति था। अरणिके मन्थनसे इसका जन्म हुआ था, अतः यह ‘मिथि’—ऐसा कहा गया और जनक से जन्म होने के कारण ‘जनक’ यह नामवाला हुआ। राजा निमि विदेह हुए, अत: उनके कुल में उत्पन्न सभी राजा ‘विदेह’ ऐसा कहे गये ।
इस प्रकार निमि के पुत्र राजा जनक प्रसिद्ध हुए। उन्होंने गंगा के तटपर एक सुन्दर नगरी का निर्माण कराया, जो मिथिला नाम से विख्यात है।
इस वंशमें जो अन्य राजा हुए, वे सभी जनक कहलाये; वे सभी विख्यात ज्ञानी और विदेह कहे जाते थे ।
राजा जनक के यहाँ आगे चलकर सीता माता ने अवतार लिया ।
जय सिया राम🙏🌷⚜️