श्वेता पुरोहित। देवर्षि श्री नारद भगवद्भक्तिके आचार्य हैं। भक्तिका प्रचार-प्रसार तथा आचरणद्वारा आदर्श स्थापन कर जागतिक जीवों को भगवदुन्मुख करना ही इनका एकमात्र ध्येय या लक्ष्य है। इनको भगवान् का मन कहकर भी वर्णन किया गया है। जीव का निस्तार करना जैसे श्रीभगवान् का सहज स्वभाव या धर्म है, उसी प्रकार उनके मनस्वरूप श्री नारद भी जीवोंको भगवदुन्मुख करने में सतत तत्पर रहकर अबाधगतिसे त्रिभुवन में विचरण करते रहते हैं।
जैसे श्रीभगवान्के अनन्त स्वरूप और अनन्त धाम हैं, उसी प्रकार उनके भक्त भी अनन्त हैं। यह विचारकर एक बार श्रीनारदजीके मनमें कौतुकवशं यह जाननेकी तीव्र उत्कण्ठा जाग उठी कि श्रीभगवान् का सबसे अधिक प्रिय भक्त या कृपापात्र कौन है? इसी संदर्भमें वे पृथिवीलोक-स्थित प्रयागनिवासी एक ब्राह्मण भक्तसे मिले, जो श्रीशालग्रामका प्रिय भक्त था। श्रीनारदजीने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा – ‘विप्र ! आप श्रीभगवान्के परम भक्त हैं।’ उस ब्राह्मणने अपनी दीनता प्रकट करते हुए निकटवर्ती देशके राजाका परिचय दिया कि वास्तवमें वह राजा ही श्रीभगवान्का परम भक्त है। श्रीनारदजी उस राजाके निकट पहुँचे और उसकी प्रशंसा की। परंतु राजाने भी अपनेको भगवत्कृपासे वञ्चित बताकर देवराज इन्द्रको भगवान्का पूर्ण कृपापात्र बतलाया।
कितनी देर लगती है श्रीनारदजीको ? ये तुरंत स्वर्गलोकमें इन्द्रके पास पहुँचे और बोले- ‘देवराज ! आप धन्य हैं एवं श्रीभगवान्के पूर्ण कृपापात्र हैं; क्योंकि श्रीउपेन्द्र भगवान् आपके छोटे भाई बनकर यहाँविराजमान रहते हैं। समस्त लोकपाल, मुनिगणादि आपकी आज्ञाके वशवर्ती हैं।’ श्रीनारदद्वारा अनेक प्रकारकी स्तुति सुनकर इन्द्रने अपने दोषोंकी गाथा कह सुनायी और अपनेको भगवत्-कृपासे वञ्चित बतलाया। इन्द्रने श्रीनारदजीको ब्रह्मलोकमें भेजा और श्रीब्रह्माजीको भगवान्का परम कृपापात्र बताया।
श्रीनारदजी ब्रह्माजीके पास पहुँचे। ब्रह्माजीने श्रीमहादेवजीको ही श्रीभगवान्का परम प्रिय भक्त बताकर उन्हें शिवलोक भेज दिया। श्रीमहादेवजीने भी अपनेको भगवत्-कृपापात्र नहीं माना और वैकुण्ठवासियोंके भाग्यकी सराहना की। श्री पार्वती जी ने वैकुण्ठवासियों में श्रीलक्ष्मीजी को श्रीभगवान्का परम कृपापात्र कहकर वर्णन किया। जब श्रीनारदजी वैकुण्ठ जाने लगे तो महादेव जी ने उन्हें बताया कि इस समय श्रीभगवान् भौम द्वारकापुरी में लीला कर रहे हैं। अतः आप सुतललोक में जाकर उनके परम प्रिय भक्त प्रह्लादजी के दर्शन करें।
श्रीनारदजी प्रह्लादजीके पास पहुँचे और उनकी गुणमहिमाका गान करते हुए कहने लगे – ‘ प्रह्लादजी ! निश्चय ही आप श्रीभगवान्के श्रेष्ठ भक्त हैं। उनकी जैसी कृपा आपपर है, वैसी और किसीपर भी नहीं है।’ श्रीप्रह्लादजी भला कैसे इस बातको सहन करते ?
वस्तुतः भक्ति एवं भगवत्-कृपाका स्वभाव है दैन्य और प्राण है विनम्रता। परम भगवत्-कृपा-प्राप्त होते हुए भी भक्त अपनेको कृपा-वञ्चित मानता है, सदा अतृप्त रहता है कृपा कादम्बिनी के लिये।
श्रीप्रह्लादजी ने अपने सम्बन्ध में श्री नारद जी की समस्त धारणाओं का निरसन करते हुए अन्त में कहा-
निरुपाधिकृपार्द्रचित्त हे बहुदौर्भाग्यनिरूपणेन किम्।
तव शुग्जननेन पश्य तत् करुणां किंपुरुषे हनूमति ॥
(बृहद्भागवतामृत १।४।३६)
‘मुनिश्रेष्ठ ! आप निर्हेतुक कृपालु हैं। मैं अपने दुर्भाग्योंका अधिक निरूपण कर आपको दुःखी नहीं करना चाहता। आप किम्पुरुषवर्षमें जाकर श्रीहनुमानजी के दर्शन कीजिये।’
श्रीप्रह्लादजी ने आगे कहा-
हनूमांस्तु महाभाग्यस्तत्सेवासुखमन्वभूत् ।
सुबहूनि सहस्त्राणि वत्सराणामविघ्नकम् ॥
‘श्रीहनुमानजी ही बड़े भाग्यशाली हैं, उन्होंने भगवान् श्रीराघवेन्द्रके सेवा-सुखका निरन्तर ग्यारह हजार वर्षोंतक निर्विघ्नरूपसे आस्वादन किया है। वे अतिशय बलवान् हैं और देवताओंकी कृपासे अनेक वर प्राप्त कर वे जरा-मरणसे रहित हैं।’ ‘नारदजी ! आप विचार कीजिये, श्रीहनुमानजी जैसा भगवत्-कृपापात्र और कौन हो सकता है? वे प्रभु श्रीराघवेन्द्रके श्रेष्ठ वाहन हैं। उनकी पूँछ प्रभुके लिये श्वेत छत्रस्थानीय है। उनकी पीठ प्रभुका सुखद आसन है। सच पूछिये तो श्रीरामकी विजयके सम्पादक श्रीहनुमानजी ही हैं। अतः वे ही सब प्रकारसे श्रीभगवान्के कृपा-भाजन हैं। यहाँ तक कि प्रभुका आज्ञापालन करते हुए वे श्रीराघवेन्द्रके असह्य विरहको भी सहनकर यहाँ पृथ्वीलोकपर विराजते हैं, प्रभुके साथ साकेत लोकमें नहीं गये। केवल इसलिये कि भगवद्विमुख जीवोंको दास्य-भक्तिकी शिक्षा प्रदान कर उनका संसारसागर से निस्तार कर सकें।’
स्वामिन् कपिपतिर्दास्य इत्यादिवचनैः खलु ।
प्रसिद्धो महिमा तस्य दास्यमेव प्रभोः कृपा ॥
यदृच्छया लब्धमपि विष्णोर्दाशरथेस्तु यः।
नैच्छन्मोक्षं विना दास्यं तस्मै हनुमते नमः ॥
श्रीप्रह्लादजी ने फिर कहा- ‘स्वामिन् ! दास्य-भक्तिमें श्रीहनुमानजीकी महिमा प्रसिद्ध है। वे अग्रगण्य हैं। श्रीरामजीसे अनायास मुक्ति प्राप्त कर सकते हुए भी जिन्होंने उनकी दास्य-भक्ति माँगी अथवा दास होना ही स्वीकार किया, मैं उन श्रीहनुमानजीको प्रणाम ही करता हूँ और अधिक क्या कहूँ? नारदजी ! मुझसे अधिक उनकी महिमा तो आप ही जानते हैं।’
श्री प्रह्लाद जी से श्रीहनुमानजी की अलौकिक गुणावलि सुनकर श्री नारद जी किम्पुरुषवर्ष में पहुँचे। उस समय श्रीहनुमानजी श्री राघवेन्द्र की चरण सेवा में लगे हुए थे। श्रीनारदजी श्री हनुमान जी के दर्शन करते ही उल्लसित हो उठे और ‘जय श्रीराघवेन्द्र’, ‘जय श्रीलक्ष्मण’ कहकर नाचने लगे। श्रीहनुमानजीने उछलकर अपने प्रभु-नाम-कीर्तनकारी श्रीनारदजीको गोदीमें भर लिया। वे परमानन्दित हो उठे।
श्रीनारदजी बोले –
श्रीमन् भगवतः सत्यं त्वमेव परमप्रियः ।
अहं च तत्प्रियोऽभूवमद्य यत्त्वां व्यलोकयम् ॥
(वही १।४।६०)
‘श्रीमन् मारुति ! सत्य ही आप श्रीभगवान्के परम प्रिय हो, आप ही उनके परम कृपापात्र हो। मैं भी आपके दर्शन कर आज प्रभुका प्यारा बन गया और श्रीभगवान्की कृपाका अनुभव कर रहा हूँ।’ इस प्रकार श्रीनारदजीने श्रीहनुमानजी की अनेक प्रकारसे प्रशंसा की।
ॐ हं हनुमते नम:
रघुनाथजी की जय