श्वेता पुरोहित। यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥
(गीता ४ । १९)
‘जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं।’
फलकामना, आसक्ति और कर्तापन के अभिमान से रहित होकर केवल लोकहितार्थ ही जो कर्मों का करना है यही वास्तव में भगवान्के कर्मों को दिव्य समझना है। जिनके कर्म ऐसे नहीं होते, जो भगवान्का अनुकरण नहीं करते, उन्होंने भगवान्के कर्मों की दिव्यता को वास्तव में नहीं समझा; क्योंकि जो भगवान्के कर्मों की दिव्यता का तत्त्व समझ लेते हैं उनके भी कर्म फिर दिव्य हो जाते हैं।
पहले भी मोक्ष की इच्छावाले साधकों ने ऐसा समझकर ही कर्मों का आचरण किया था, उसी प्रकार आसक्ति, फलेच्छा और अभिमान छोड़कर कर्म करने के लिये भगवान् अर्जुन को आज्ञा देते हुए कर्मों का तत्त्व इस प्रकार समझाते हैं-
कि कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥
(गीता ४ । १६-१८)
‘कर्म क्या है? और अकर्म क्या है- इस प्रकार इसका निर्णय करनेमें बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं।
इसलिये वह कर्मतत्त्व मैं तुझे भली भाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभसे अर्थात् कर्मबन्धन से मुक्त हो जायगा। कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्म की गति गहन है। जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान् है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है।’
प्रश्न – कर्म में अकर्म देखना क्या है? तथा इस प्रकार देखनेवाला मनुष्योंमें बुद्धिमान्, योगी और समस्त कर्म करनेवाला कैसे है?
उत्तर – लोकप्रसिद्धि में मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीरके व्यापार मात्र का नाम कर्म है; उनमें से जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म हैं उनको कर्म कहते हैं और शास्त्रनिषिद्ध पाप कर्मों को विकर्म कहते हैं। शास्त्रनिषिद्ध पापकर्म सर्वथा त्याज्य हैं, इसलिये उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी। अतः यहाँ, जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म हैं, उनमें अकर्म देखना क्या है-इस बातपर विचार करना है। यज्ञ, दान, तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार जीविका और शरीर-निर्वाह-सम्बन्धी जितने भी शास्त्रविहित कर्म हैं—उन सबमें आसक्ति, फलेच्छा, ममता और अहंकारका त्याग कर देने से वे इस लोक या परलोक में सुख-दुःखादि फल भुगतानेके और पुनर्जन्म के हेतु नहीं बनते बल्कि मनुष्य के पूर्वकृत समस्त शुभाशुभ कर्मों का नाश करके उसे संसार-बन्धन से मुक्त करने वाले होते हैं-इस रहस्यको समझ लेना ही कर्म में अकर्म देखना है। इस प्रकार कर्म में अकर्म देखनेवाला मनुष्य आसक्ति, फलेच्छा और ममता के त्यागपूर्वक ही कर्तव्य कर्मों का यथायोग्य आचरण करता है। अतः वह कर्म करता हुआ भी उनसे लिप्त नहीं होता, इसलिये वह मनुष्यों में बुद्धिमान् है; उसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है, इसलिये वह योगी है; और उसे कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता-वह कृतकृत्य हो जाता है, इसलिये वह समस्त कर्मों को करनेवाला है।
प्रश्न – अकर्म में कर्म देखना क्या है? तथा इस प्रकार देखनेवाला मनुष्योंमें बुद्धिमान्, योगी और समस्त कर्म करनेवाला कैसे है?
उत्तर – लोकप्रसिद्धि में मन, वाणी और शरीर के व्यापार को त्याग देने का ही नाम अकर्म है; यह त्यागरूप अकर्म भी आसक्ति, फलेच्छा, ममता और अहंकारपूर्वक किया जानेपर पुनर्जन्म का हेतु बन जाता है। इतना ही नहीं, कर्तव्य-कर्मों की अवहेलना से या दम्भाचार के लिये किया जाने पर तो यह विकर्म (पाप) के रूपमें बदल जाता है – इस रहस्यको समझ लेना ही अकर्ममें कर्म देखना है। इस रहस्य को समझनेवाला मनुष्य किसी भी वर्णाश्रमोचित कर्मका त्याग न तो शारीरिक कष्ट के भय से करता है, न राग- द्वेष अथवा मोहवश और न मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा या अन्य किसी फलकी प्राप्ति के लिये ही करता है। इसलिये वह न तो कभी अपने कर्तव्य से गिरता है और न किसी प्रकार के त्याग में ममता, आसक्ति, फलेच्छा या अहंकार का सम्बन्ध जोड़कर पुनर्जन्म का ही भागी बनता है, इसीलिये वह मनुष्यों में बुद्धिमान् है। उसका परम पुरुष परमेश्वर से संयोग हो जाता है, इसलिये वह योगी है और उसके लिये कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता, इसलिये वह समस्त कर्म करने वाला है।
प्रश्न – कर्ममें अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाला साधक भी मुक्त हो जाता है या सिद्ध पुरुष ही इस प्रकार देख सकता है?
उत्तर – मुक्त पुरुष के जो स्वाभाविक लक्षण होते हैं, वे ही साधकके लिये साध्य होते हैं। अतएव मुक्त पुरुष तो स्वभावसे ही इस तत्त्वको जानता है और साधक उनके उपदेशद्वारा जानकर उस प्रकार साधन करनेसे मुक्त हो जाता है। इसीलिये भगवान्ने कहा है कि ‘मैं तुझे कर्म-तत्त्व बतलाऊँगा, जिसे जानकर तू कर्मबन्धनसे छूट जायगा।’
उपर्युक्त प्रकार से कर्म योग के तत्त्वको जाननेवाला ही मनुष्यों में बुद्धिमान् है, योगी है और सम्पूर्ण कर्मों का करने वाला है इसलिये वह इस कर्म रहस्य को समझकर संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है।
इस प्रकार से कर्मों का तत्त्व समझकर फल, कामना, आसक्ति और अहंकार को छोड़कर समस्त कर्मों का करना ही भगवान्के कर्मों की दिव्यता को समझना है।
ऊपर बतलाये हुए भगवान्के जन्म और कर्मों की दिव्यता के तत्त्व को जाननेवाला पुरुष सारे कर्म और दुःखों से छूटकर परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।