श्वेता पुरोहित। संसार वृक्ष अव्यक्त परमात्मा रूपी मूल से प्रकट हुआ है। उन्हीं से प्रकट होकर हमारे सामने इस रूप में खड़ा है। बुद्धि (महत्तत्त्व) उसका तना है, इन्द्रियाँ ही उसके अङ्कुर और कोटर हैं, पञ्च महाभूत उसकी बड़ी-बड़ी डालियाँ हैं, विशेष पदार्थ ही उसके पत्ते और टहनियाँ हैं, धर्म-अधर्म फूल हैं, उससे ‘सुख’ और ‘दुःख’ नामक फल प्रकट होते हैं, प्रवाह रूप से सदा रहने वाला यह संसारवृक्ष ब्रह्म की भाँति सभी भूतों का आश्रय है। यह अपरब्रह्म और परब्रह्म भी इस संसार वृक्ष का कारण है। इस प्रकार संसार वृक्ष का लक्षण बतलाया गया है।
इस वृक्ष पर चढ़े हुए देहाभिमानी जीव मोहित हो जाते हैं। प्रायः ब्रह्मज्ञान से विमुख प्राकृत मनुष्य सदा सुख-दुःख से युक्त होकर इस संसार में फँसे रहते हैं, ब्रह्मज्ञानी विद्वान् इस संसार वृक्ष को नहीं प्राप्त होते। वे इसका उच्छेद करके मुक्त हो जाते हैं। जो पापी हैं, वे कर्म-क्रिया का उच्छेद नहीं कर पाते। ज्ञानी पुरुष ज्ञान रूपी उत्तम खड्ग के द्वारा इस वृक्ष को छिन्न-भिन्न करके उस अमर पद को प्राप्त करते हैं, जहाँ से जीव पुन: इस संसार में नहीं आता। शरीर तथा स्त्री रूपी बन्धनों से दृढ़ता पूर्वक बँधा हुआ पुरुष भी ज्ञान के द्वारा मुक्त हो जाता है; अतः श्रेष्ठतम पुरुषों को ज्ञान की प्राप्ति ही परम अभीष्ट होती है; क्योंकि ज्ञान ही भगवान् नृसिंहको संतोष देता है।
ज्ञानहीन पुरुष तो पशु ही है। मनुष्यों के आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि कर्म तो पशुओं के ही समान होते हैं; उनमें केवल ज्ञान ही अधिक होता है। जो ज्ञानहीन हैं, वे पशुओं के ही तुल्य हैं।
अष्टाक्षर मंत्र और उसका माहात्म्य
श्रीशुकदेवजी बोले – तात! पिताजी ! मनुष्य सदा भगवान् विष्णु के भजन में तत्पर रहकर किस मन्त्र का जप करने से सांसारिक कष्ट से मुक्त होता है? यह मुझे बताइये । इससे सब लोगों का हित होगा
श्रीव्यासजी बोले – बेटा! मैं तुम्हें सभी मन्त्रों में उत्तम अष्टाक्षरमन्त्र बतलाऊँगा, जिसका जप करने वाला मनुष्य जन्म और मृत्यु से युक्त संसाररूपी बन्धन से मुक्त हो जाता है।
द्विजको चाहिये कि अपने हृदय-कमल के मध्यभाग में शङ्ख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान् विष्णु का एकाग्रचित्त से ध्यान करते हुए जप करे। एकान्त, जनशून्य स्थान में, श्री विष्णुमूर्ति के सम्मुख अथवा जलाशय के निकट मन में भगवान् विष्णु का ध्यान करते हुए अष्टाक्षर मन्त्र का जप करना चाहिये।
साक्षात् भगवान् नारायण ही अष्टाक्षरमन्त्र के ऋषि हैं, दैवी गायत्री छन्द है, परमात्मा देवता हैं।
ॐकार शुक्लवर्ण है,
‘न’ रक्तवर्ण है,
‘मो’ कृष्णवर्ण है,
‘ना’ रक्त है,
‘रा’ कुङ्कुम-रंगका है,
‘य’ पीतवर्णका है,
‘णा’ अञ्जन के समान कृष्ण वर्ण वाला है
और ‘य’ विविध वर्णोंसे युक्त है।
तात! यह ‘ॐ नमो नारायणाय’ मन्त्र समस्त प्रयोजनों का साधक है और भक्तिपूर्वक जप करने वाले लोगों को स्वर्ग तथा मोक्षरूप फल देनेवाला है।
यह सनातन मन्त्र वेदों के प्रणव (सारभूत अक्षरों) – से सिद्ध होता है। यह सभी मन्त्रों में उत्तम, श्री सम्पन्न और सम्पूर्ण पापों को नष्ट करने वाला है। जो सदा संध्या के अन्त में इस अष्टाक्षरमन्त्र का जप करता हुआ भगवान् नारायण का स्मरण करता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। यही उत्तम मन्त्र है और यही उत्तम तपस्या है। यही उत्तम मोक्ष तथा यही स्वर्ग कहा गया है। पूर्वकाल में भगवान् विष्णु ने वैष्णवजनों के हित के लिये सम्पूर्ण वेद-रहस्यों से यह सारभूत मन्त्र निकाला है। इस प्रकार जान कर ब्राह्मण को चाहिये कि इस अष्टाक्षर-मन्त्रका स्मरण (जप) करे।
स्नान करके, पवित्र होकर, शुद्ध स्थान में बैठकर पापशुद्धि के लिये इस मन्त्र का जप करना चाहिये। जप, दान, होम, गमन, ध्यान तथा पर्व के अवसर पर और किसी कर्म के पहले तथा पश्चात् इस नारायण-मन्त्रका जप करना चाहिये। भगवान् विष्णु के भक्तश्रेष्ठ द्विज को चाहिये कि वह प्रत्येक मास की द्वादशी तिथि को पवित्र भावसे एकाग्रचित्त होकर सहस्र (१००० बार) या लक्ष (१ लाख बार) मन्त्र का जप करे।
स्नान करके पवित्र भाव से जो ‘ॐ नमो नारायणाय’
मन्त्रका सौ (एक सौ आठ) बार जप करता है, वह निरामय परमदेव भगवान् नारायण को प्राप्त करता है। जो इस मन्त्र के द्वारा गन्ध-पुष्प आदि से भगवान् विष्णु की आराधना करके इसका जप करता है, वह महापातक से युक्त होने पर भी निस्संदेह मुक्त हो जाता है। जो हृदय में भगवान् विष्णु का ध्यान करते हुए इस मन्त्र का जप करता है, वह समस्त पापों से विशुद्धचित्त होकर उत्तम गति को प्राप्त करता है।
एक लक्ष (१ लाख बार) मन्त्र का जप करने से चित्तशुद्धि होती है,
दो लक्ष (२ लाख बार) के जप से मन्त्र की सिद्धि होती है,
तीन लक्ष (३ लाख बार) के जप से मनुष्य स्वर्गलोक प्राप्त कर सकता है,
चार लक्ष (४ लाख बार) से भगवान् विष्णु की समीपता प्राप्त होती है और
पाँच लक्ष (५ लाख बार) से निर्मल ज्ञान की प्राप्ति होती है।
इसी प्रकार छः लक्ष (६ लाख बार) से भगवान् विष्णु में चित्त स्थिर होता है,
सात लक्ष (७ लाख बार) से भगवत्स्वरूप का ज्ञान होता है और
आठ लक्ष (८ लाख बार) से पुरुष निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है।
द्विजमात्रको चाहिये कि अपने-अपने धर्मसे युक्त रहकर इस मन्त्र का जप करे। यह अष्टाक्षरमन्त्र सिद्धिदायक है। आलस्य त्याग कर इसका जप करना चाहिये। इसे जप करनेवाले पुरुष के पास दुःस्वप्न, असुर, पिशाच, सर्प, ब्रह्मराक्षस, चोर और छोटी-मोटी मानसिक व्याधियाँ भी नहीं फटकती हैं ।
यह ॐ कारादि अष्टाक्षर-मन्त्र गोपनीय वस्तुओं में परम गोपनीय है। इसका जप करनेवाला मनुष्य आयु, धन, पुत्र, पशु, विद्या, महान् यश एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है। यह वेदों और श्रुतियों के कथनानुसार धर्मसम्मत तथा सत्य है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये मन्त्ररूपी नारायण मनुष्यों को सिद्धि देनेवाले हैं। ऋषि, पितृगण, देवता, सिद्ध, असुर और राक्षस इसी परम उत्तम मन्त्रका जप करके परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।
जो ज्यौतिष आदि अन्य शास्त्रों के विधान से अपना अन्तकाल निकट जानकर इस मन्त्र का जप करता है, वह भगवान् विष्णु के प्रसिद्ध परमपद को प्राप्त होता है ।
विष्णुभक्तको चाहिये कि वह दृढ़संकल्प स्वस्थ होकर एकाग्रचित्तसे इस नारायण-मन्त्रका जप करे। यह मृत्युभयका नाश करनेवाला है । मन्त्रों में सबसे उत्कृष्ट मन्त्र और देवताओंका भी देवता (आराध्य) है।
(श्रीनरसिंहपुराण – अध्याय १७)
ॐ नमो नारायणाय