श्वेता पुरोहित। ‘बलं बलवतां चाहम्’ (गीता ७।११) – इस गीतोक्ति के अनुसार सभी बलवानों के बल स्वयं भगवान् ही हैं। क्रुद्ध रावण ने बंदी हनुमान जी से जब पूछा कि ‘केहि के बल घालेहि बन खीसा।
(मानस ५। २०१३)
तूने किस के बलपर वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला’, तब शील और तेज के समन्वित रूप हनुमानजी ने अत्यन्त निर्भीकता के साथ उस बल का स्पष्ट परिचय दिया-
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरचति माया ॥
जार्के बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा ॥
जा बल सीस धरत सहसानन ।
अंडकोस समेत गिरि कानन ।
धरड़ जो बिबिध देह सुरत्राता।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलसाली ॥
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥
(मानस ५।२०।२-४३; ५/२१)
माया, ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा शेष का बल भी श्रीरामजी का ही बल है। जिनके बलके क्षुद्र अंश को पाकर संसार के क्षुद्र जीव भी बलवान् बनते हैं, जो अतुलित बलवानों का भी वध करने वाले हैं, वे ही भगवान् श्रीराम वस्तुतः अतुलितबलशाली हैं।
‘जयत्यतिबलो रामः’ (वा० रा० ५। ४२। ३३) कहकर पवन-नन्दनने उन्हीं अतुलबली भगवान् श्रीराम का जय-जयकार किया है। जनकपुर के दूतों ने भी ‘राजन रामु अतुल बल जैसें।’
(मानस १। २९२ । १३) कहकर राजा दशरथ से उन्हीं श्रीरामजी के अतुलबल का बखान किया था। वे ही अतुलबली श्रीराम पवन – कुमार के हृदयागार में धनुष और बाण धारण किये हुए नित्य निवास करते हैं- ‘जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥’
(मानस १।१७)
वस्तुतः हनुमानजी का हृदय पवित्र एवं सुन्दर ‘आगार’ है। उसमें विहार करने वाले हैं- अतुलितबली भगवान् श्रीराम; अतएव हनुमानजी उन अतुलितबली श्रीराम के धाम हैं। हनुमानजी का बल अपना बल नहीं है, वह तो अतुलितबली श्रीराम का ही बल है; हनुमानजी तो उस अतुलितबल के धाममात्र हैं। तभी तो गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने ‘रामचरितमानस’ के सुन्दरकाण्ड में ‘अतुलितबलधामम्’ कहकर हनुमानजी की वन्दना की है और ‘हनुमानचालीसा’ में भी ‘रामदूत अतुलित बलधामा।’ लिखकर उनका जयजयकार किया है। त्रेतायुग में अतुलित बलशाली बहुत थे। खर, दूषण, त्रिशिरा, वाली, मेघनाद, रावणादि अतुलित बलशाली ही तो थे। वाली और रावण इनमें मुख्य थे; किंतु उन दोनों का भी बल श्रीहनुमानजी के बल की तुलना में न्यून था। भगवान् श्रीराम ने महर्षि अगस्त्य से अपना यही विचार हनुमानजी के विषय में बतलाया है-
अतुलं बलमेतद् वै वालिनो रावणस्य च।
न त्वेताभ्यां हनुमता समं त्विति मतिर्मम ॥
शौर्यं दाक्ष्यं बलं धैर्यं प्राज्ञता नयसाधनम् ।
विक्रमश्च प्रभावश्च हनूमति कृतालयाः ॥
(वा० रा० ७।३५।२-३)
‘वाली और रावण, दोनों का बल अतुलनीय था, पर इनका बल भी हनुमान के बल के समान नहीं है, ऐसा मैं समझता हूँ। शूरता, निपुणता, बल, धीरता, बुद्धि, नीति, विक्रम और प्रभावका हनुमान में निवास है।’ आगे फिर श्रीरामजीने महर्षिको समझाया –
न कालस्य न शक्रस्य न विष्णोर्वित्तपस्य च। कर्माणि तानि श्रूयन्ते यानि युद्धे हनूमतः ॥
एतस्य बाहुवीर्येण लङ्का सीता च लक्ष्मणः ।
प्राप्ता मया जयश्चैव राज्यं मित्राणि बान्धवाः ॥ हनूमान् यदि मे न स्याद् वानराधिपतेः सखा। प्रवृत्तिमपि को वेत्तुं जानक्याः शक्तिमान् भवेत्॥
(वा० रा० ७।३५।८-१०)
‘युद्ध में यमराज, इन्द्र, विष्णु और कुबेर के वैसे वीरतापूर्ण कर्म नहीं सुने जाते, जैसे हनुमानके हैं। इन्हींके बाहुबल से मैंने लंका, सीता, लक्ष्मण, विजय, राज्य, मित्र और बान्धवोंको पाया है। वानरराज सुग्रीवके मित्र हनुमान यदि मुझे न मिलते तो सीता का पता भी कौन लगा सकता ?’
श्रीहनुमान ने वालीका वध क्यों नहीं किया, इसका कारण भगवान् श्री राम ने महर्षि को बतलाया है- किमर्थं वाली चैतेन सुग्रीवप्रियकाम्यया।
तदा वैरे समुत्पन्ने न दग्धो वीरुधो यथा ॥
नहि वेदितवान् मन्ये हनूमानात्मनो बलम् ।
यद् दृष्टवाञ्जीवितेष्टं क्लिश्यन्तं वानराधिपम् ॥
(वा० रा० ७।३५।११-१२)
‘उस समय जब सुग्रीव और वालीमें विरोध हुआ था, सुग्रीवका हित करनेके लिये हनुमानजी ने तृणके समान वालीको क्यों नहीं जला दिया ? सम्भवतः उस समय हनुमान को अपने बल का ज्ञान न था कि मैं वाली को मार सकता हूँ। इसी कारण उन्होंने प्राणों के समान प्रिय वानरराज सुग्रीव को कष्ट उठाते देखा।’ वस्तुतः हनुमानजी को ऋषि-शापवश अपने बलका स्मरण ही नहीं रहता था।
भगवान् श्री राम को सम्पूर्ण हनुमच्चरित सुनाते हुए महर्षि अगस्त्यने भी हनुमानजीके गुणों के सम्बन्ध में अपना निर्णय इस प्रकार दिया है-
पराक्रमोत्साहमतिप्रताप-सौशील्यमाधुर्यनयानयैश्च
गाम्भीर्यचातुर्यसुवीर्यधैर्ये- र्हनूमतः कोऽप्यधिकोऽस्ति लोके ॥
(वा० रा० ७।३६।४४)
‘भला, पराक्रम, उत्साह, बुद्धि, प्रताप, सुशीलता, कोमलता, न्यायान्याय का ज्ञान, गम्भीरता, चतुरता, बल और धैर्य में श्री हनुमान से अधिक इस त्रिलोकी में कौन है? श्री हनुमान जी रावण का भी वध कर सकते थे, परंतु रावण-वध का यश भगवान् श्रीराम को प्राप्त हो, इसी विचार से इन्होंने स्वयं उसके वध की उपेक्षा कर दी। हनुमानजी स्वयं भीमसेन को बतला रहे हैं-
भीमसेन न पर्याप्तो ममासौ राक्षसाधमः ॥
मया तु निहते तस्मिन् रावणे लोककण्टके । कीर्तिर्नश्येद्राघवस्य एतदुपेक्षितम् ॥
(महा० वन० १५०।१८-१९)
‘हे भीमसेन ! वह राक्षसाधम रावण मेरे बराबर का बलवान् नहीं था। यदि उस लोकपीडक को मैं मार डालता तो राघवेन्द्र श्रीराम को यश नहीं मिलता; इसीसे मैंने उसकी उपेक्षा कर दी।’ हनुमानजी चाहते तो लंका के सारे राक्षसों को अकेले ही मौत के घाट उतार सकते थे। ऋक्षराज जाम्बवान्से स्वयं उन्होंने कहा था-
‘सहित सहाय रावनहि मारी।
आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी ॥
(मानस ४।२९।४३)
रावण को भी हनुमानजी के अतुलबल का पक्का ज्ञान था, तभी तो वह मेघनाद को समझा रहा था – न मारुतस्यास्ति गतिप्रमाणं च चाग्निकल्पः करणेन हन्तुम् ॥
(वा० रा० ५।४८।११)
‘वायुपुत्र हनुमान के सामर्थ्य की इयत्ता नहीं है। वह कितना बली है, इसका निश्चय नहीं है। अग्नि के समान तेजस्वी वह वानर किन्हीं साधन विशेषों द्वारा नहीं मारा जा सकता।’ अपने पाँच सेनापतियों को भी रावण ने हनुमानजी के बलके सम्बन्धमें समझाया था –
दृष्टा हि हरयः पूर्वं मया विपुलविक्रमाः ।
वाली च सह सुग्रीवो जाम्बवांश्च महाबलः ॥
नीलः सेनापतिश्चैव ये चान्ये द्विविदादयः ।
नैव तेषां गतिर्भीमा न तेजो न पराक्रमः ॥
न मतिर्न बलोत्साहो न रूपपरिकल्पनम् । महत्सत्त्वमिदं ज्ञेयं कपिरूपं व्यवस्थितम् ॥
(वा० रा० ५।४६।१२-१४)
‘मैंने विपुल पराक्रमी वाली, सुग्रीव, महाबली जाम्बवान्, सेनापति नील तथा द्विविद आदि अन्य वानरों को भी देखा है, परंतु उनके कार्य इतने भयंकर नहीं हैं और न उनका इतना तेज और पराक्रम ही है, न उनके बुद्धि है, न बल है और न ऐसा उत्साह ही है। उनमें रूप बदलनेकी ऐसी शक्ति भी नहीं है। वस्तुतः वानरके रूपमें आया हुआ यह कोई बड़ा शक्तिशाली दिव्य प्राणी है।’
रावण तो अपने बलके समकक्ष किसीके बलको मानता ही नहीं था; फिर भी वह हनुमानजीके बलका लोहा तो मान ही गया था। अङ्गदके सामने उसने अपने बलकी बहुत डींग हाँकी, किंतु हनुमानजीका ध्यान आते ही वह यह स्वीकार करनेको विवश हो गया कि –
‘है कपि एक महा बलसीला ॥’
‘आवा प्रथम नगरु जेहिं जारा।’
(मानस ६।२२।२३, २)
रावणकी यह स्वीकृति ही अतुलितबलधाम हनुमानजी- के अतुल बलकी विजय-वैजयन्ती है। हनुमानजीका बलपारावार अपार और अथाह है। आजतक किसीने भी इन अतुलितबलधामके बलकी थाह नहीं पायी। जो युद्ध में सामने आ गया, उसे ही मुँह की खानी पड़ी; चाहे वह भट हो या सुभट, महाभट हो या दारुण भट। अशोक वाटिकाका युद्ध इसका प्रमाण है।
कई दिनोंके भूखे हनुमानजी पराम्बा श्रीजानकी से आदेश लेकर मेघनाद से भी अधिक प्यारे रावण के अशोक-वन में प्रविष्ट हुए। जब मधुर-मधुर फलों का आहार पूरा हो गया, तब वृक्षों को उखाड़ने-उजाड़ने का काम आरम्भ हो गया। जब पहरा देनेवाले भटोंने हस्तक्षेप किया, तब उनमें से जो सामने आ गये, वे तो सुरधाम चले गये और जो भाग गये, उन्होंने जाकर रावण को इसकी सूचना दी –
नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी ॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥
(मानस ५।१७।२)
प्रहरी भटों से सूचना पाकर रावण ने अपने ही तुल्य पराक्रमी अस्सी ‘हजार’ किंकर नामक राक्षसों को, प्रहस्त-पुत्र जम्बुमालीको, सात मन्त्रिपुत्रों को तथा पाँच सेनापतियों को क्रमशः भेजा। उन्हें देखते ही युद्ध के उत्साह में हनुमानजी ने बड़ी भयंकर गर्जना की। उन्होंने कुछ चुने-चुनाये भटों को तो काल के गाल में पहुँचाया और कुछ चोट खाये हुए अधमरों को रावण के पास समाचार पहुँचानेके लिये छोड़ दिया। वे घायल राक्षस गुहार लगाते हुए रावणके पास पहुँचे। इस बार रावणने अपने प्रियपुत्र कुमार अक्षको युद्धार्थ भेजा। वह महाभट सुभटोंकी सेना लेकर चला। उसे आता देखकर हनुमानजीने एक वृक्षको हाथमें लेकर उसे डाँटा और देखते-ही-देखते उसका वध कर पुनः ऊँची ध्वनि में गर्जन किया-
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा। आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥
(मानस ५।१७।४)
अशोक-वाटिकामें हनुमानजीको चार बार युद्ध करना पड़ा। चारों युद्धोंके तारतम्यको हम इनके गर्जनसे समझ सकते हैं। पहली लड़ाई प्रहरी भटोंके साथ हुई। वह इनकी दृष्टिमें इतनी हलकी रही कि इन्हें युद्धका उत्साह ही नहीं आया; इसलिये इन्होंने साधारण गर्जन भी नहीं किया। दूसरी लड़ाई रावणके द्वारा प्रेषित जाने- माने भटोंके साथ हुई। उसमें इन्हें थोड़ा युद्धोत्साह आया, इसलिये इन्होंने साधारण गर्जन किया। तीसरी लड़ाई महाभट अक्षकुमारके साथ हुई। रावण-पुत्र अक्षका वध करके ये युद्धोत्साहमें जोरसे गरजे। चौथी लड़ाई दारुण भट और अतुलित योद्धा मेघनादके साथ हुई। मेघनादको देखकर इन्होंने तीन क्रियाएँ एक साथ कीं-कटकटाये, गरजे और दौड़े-
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥
(मानस ५।१८।२)
हनुमानजी के बल की थाह न भटोंने पायी, न सुभटों या महाभटोंने रावण से मिलने के ही उद्देश्य से दारुण भट मेघनाद के द्वारा किये गये ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का हनुमानजी ने सम्मान किया। अतः मूर्च्छा की लीला की। तब मेघनाद नागपाश में बाँधकर इन्हें रावण की राजसभा में ले गया। रावण से मिलने के बाद लाङ्गूल-दाह की तैयारी पूरी होते ही इन्होंने अपने विशाल शरीरको योगबल से इतना संकुचित कर दिया कि उन्हें बन्धन से सहज ही मुक्ति मिल गयी। इसके बाद विश्वविजयी रावण तथा स्वर्गविजेता मेघनाद के देखते-ही-देखते आपने सम्पूर्ण लंका का पूर्णरूप से अग्नि-संस्कार करके अपने अतुलित बलका झंडा रावण और समस्त लंकावासियों के अन्तस्तल पर गाड़ दिया।
हनुमानजी लात, लाङ्गूल और मुक्का – तीनोंसे प्रहार करते हैं। इनके तीनों अङ्गोंका बल अद्वितीय तथा अमोघ है, फिर भी इनके मुक्के का प्रहार विशेष सबल और अचूक है। लंकाके तीनों विशिष्ट वीर-रावण, कुम्भकर्ण तथा मेघनाद इनके एक-एक मुष्टि-प्रहारको भी सहन नहीं कर सके। परिणामतः तीनों मूच्छित हुए। इनके क्रमशः उदाहरण लीजिये।
प्रचण्ड शक्ति-प्रयोगके द्वारा मूच्छित लक्ष्मण को जब रावण उठाने लगा, तब वे उससे उठ न सके; इतनेमें ही हनुमानजीने लक्ष्मणको देख लिया और –
देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर ।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर ॥
(मानस ६।८३)
फिर भी –
जानु टेकि कपि भूमि न गिरा।
उठा सँभारि बहुत रिस भरा ॥
(मानस ६।८३।३)
इसके बाद –
मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा ॥
(मानस ६।८३।१)
रावण का मुष्टि-प्रहार प्रघोर था, फिर भी वह हमारे हनुमानजी को गिरा नहीं सका; इधर हनुमानजी के मुष्टि- प्रहार से चारों खाने चित्त हो गया वह विश्वविजयी वीर रावण। रावण मूच्छित पड़ा रहा और हनुमानजी उसकी मूर्च्छा निवृत्ति की प्रतीक्षा करते रहे; किन्तु वाह रे मुष्टि- प्रहार का प्रभाव ! होशमें आते ही रावण से रहा नहीं गया और वह मुक्त कण्ठ से हनुमानजी के विपुल बल की सराहना करने लगा –
मुरुछा गइ बहोरि सो जागा।
कपि बल बिपुल सराहन लागा ॥
(६।८३।१३)
अब पवन-नन्दन के मुक्के से कुम्भकर्ण की मूर्च्छा का प्रसङ्ग देखिये। कुम्भकर्ण के ऊपर-
कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा।
करहिं भालु कपि एक एक बारा ॥
(मानस ६। ६४।२३)
फिर भी –
मुत्यो न मनु तनु टत्यो न टास्यो।
जिमि गज अर्क फलनि को मास्यो ॥
(मानस ६।६४।३)
तब –
‘तब मारुतसुत मुठिका हन्यो।’ (मानस ६। ६४। ३७)
परिणाम –
‘पत्यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो ।’ (मानस ६।६४।३३)
कुम्भकर्ण कोटि-कोटि गिरि-शिखर-प्रहार को सहता हुआ भी युद्ध में निर्बाध बढ़ता जा रहा था। वह पवनात्मज का मुक्का लगते ही व्याकुल होकर धरती पर ढेर हो गया और लगा सिर पीटने । जो कार्य असंख्य योद्धाओं द्वारा कोटि-कोटि गिरि-शिखर प्रहार करने से भी न हो सका, वह वायुपुत्र के एक मुक्के की मार से तुरंत सम्पन्न हो गया। धन्य हैं वायुकुमार और धन्य है उनका यह मुष्टि-प्रहार ! कुम्भकर्ण ने भी रावण को समझाते हुए हनुमानजी के बलकी प्रशंसा जी खोलकर की थी-
हैं दससीस मनुज रघुनायक।
जा के हनूमान से पायक ॥
(मानस ६।६२।१३)
मेघनाद तो अशोक-वाटिकाके युद्धमें ही हनुमानजी के मुक्के से मूच्छित हो चुका था-
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई ॥
(मानस ५। १८। ४)
हनुमान के मुक्के का मर्म जान लेने के बाद मेघनाद अपने-आपको उनके सामने सदा पराजित अनुभव करता था। हनुमानजी के बार-बार ललकारने पर भी वह उनके निकट नहीं आता था; बल्कि बड़ी सावधानी के साथ उनसे कटा-कटा फिरता था-
बार बार पचार हनुमाना।
निकट न आव मरमु सो जाना ॥
(मानस ६।५०।२)
यह है अतुलितबलधाम हनुमानजी के मुष्टिप्रहार का अनोखा चमत्कार और सदैव ही अभिनन्दनीय है – श्रीपवननन्दन का यह अतुलित बल !
- लेखक -राष्ट्रपति पुरस्कृत पं० श्रीजगदीशजी शुक्ल, साहित्यालंकार, काव्यतीर्थ
जय बजरंगबलि