श्वेता पुरोहित। जब सीता का लंका में प्रवेश हो गया, तब पितामह ब्रह्माजी ने संतुष्ट हुए देवराज इन्द्र से इस प्रकार कहा –
‘देवराज ! तीनों लोकों के हित और राक्षसों के विनाश के लिये दुरात्मा रावण ने सीता को लंका में पहुँचा दिया।
‘पतिव्रता महाभागा जानकी सदा सुख में ही पली हैं। इस समय वे अपने पति के दर्शन से वंचित हो गयी हैं और राक्षसियों से घिरी रहने के कारण सदा उन्हीं को अपने सामने देखती हैं। उनके हृदय में अपने पति के दर्शन की तीव्र लालसा बनी हुई है।
‘लंकापुरी समुद्र के तटपर बसी हुई है। वहाँ रहती हुई सती-साध्वी सीता का पता श्रीरामचन्द्रजी को कैसे लगेगा।
‘सीता दुःख के साथ नाना प्रकार की चिन्ताओं में डूबी रहती हैं। पति के लिये इस समय वे अत्यन्त दुर्लभ हो गयी हैं। प्राणयात्रा (भोजन) नहीं करती हैं; अतः ऐसी दशा में निःसंदेह वे अपने प्राणों का परित्याग कर देंगी। सीता के प्राणों का क्षय हो जानेपर हमारे उद्देश्य की सिद्धि में पुनः पूर्ववत् संदेह उपस्थित हो जायगा।
‘अतः तुम शीघ्र ही यहाँ से जाकर लंकापुरी में प्रवेश करके सुमुखी सीता से मिलो और उन्हें उत्तम हविष्य प्रदान करो’।
ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर पाकशासन भगवान् इन्द्र निद्रा को साथ लेकर रावण द्वारा पालित लंकापुरी में आये। वहाँ आकर इन्द्र ने निद्रा से कहा- ‘तुम राक्षसों को मोहित करो।’ इन्द्र से ऐसी आज्ञा पाकर देवी निद्रा बहुत प्रसन्न हुईं। देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये उन्होंने राक्षसों को मोह (निद्रा) में डाल दिया।
इसी बीच में सहस्त्र नेत्रधारी शचीपति देवराज इन्द्र – अशोकवाटिका में बैठी हुई सीता के पास गये और इस प्रकार बोले –
‘पवित्र मुसकानवाली देवि ! आपका भला हो। मैं देवराज इन्द्र यहाँ आपके पास आया हूँ। जनककिशोरी ! मैं आपके उद्धारकार्य की सिद्धि के लिये महात्मा श्रीरघुनाथजी की सहायता करूँगा, अतः आप शोक न करें।
‘वे मेरे प्रसाद से बड़ी भारी सेना के साथ समुद्र को पार करेंगे। शुभे ! मैंने ही यहाँ इन राक्षसियों को अपनी मायासे मोहित किया है।
‘विदेहनन्दिनी सीते ! इसलिये मैं स्वयं ही यह भोजन-यह हविष्यान्न लेकर निद्रा के साथ तुम्हारे पास आया हूँ।
‘शुभे ! रम्भोरु ! यदि मेरे हाथ से इस हविष्य को लेकर खा लोगी तो तुम्हें हजारों वर्षों तक भूख और प्यास नहीं सतायेगी’।
देवराज के ऐसा कहने पर शङ्कित हुई सीता ने उनसे कहा-‘मुझे कैसे विश्वास हो कि आप शचीपति देवराज इन्द्र ही यहाँ पधारे हैं? ‘देवेन्द्र ! मैंने श्रीराम और लक्ष्मणके समीप देवताओं के लक्षण अपनी आँखों देखे हैं। यदि आप साक्षात् देवराज हैं तो उन लक्षणों को दिखाइये ‘।
सीता की यह बात सुनकर शचीपति इन्द्र ने वैसा ही किया। उन्होंने अपने पैरों से पृथ्वी का स्पर्श नहीं किया-आकाश में निराधार खड़े रहे। उनकी आँखों की पलकें नहीं गिरती थीं। उन्होंने जो वस्त्र धारण किया था, उसपर धूल का स्पर्श नहीं होता था। उनके कण्ठ में जो पुष्पमाला थी, उसके पुष्प कुम्हलाते नहीं थे। देवोचित लक्षणों से इन्द्र को पहचान कर सीता बहुत प्रसन्न हुईं।
वे भगवान् श्रीराम के लिये रोती हुई बोलीं- ‘भगवन्! सौभाग्य की बात है कि आज भाई सहित
महाबाहु श्रीराम का नाम मेरे कानों में पड़ा है।
‘मेरे लिये जैसे मेरे श्वशुर महाराज दशरथ तथा पिता मिथिलानरेश जनक हैं, उसी रूप में मैं आज आपको देखती हूँ। मेरे पति आपके द्वारा सनाथ हैं।
‘देवेन्द्र ! आपकी आज्ञासे मैं यह पायसरूप हविष्य (दूधकी बनी हुई खीर), जिसे आपने दिया है, खाऊँगी। यह रघुकुलकी वृद्धि करनेवाला हो’।
इन्द्रके हाथ से उस खीर को लेकर उन पवित्र मुसकानवाली मैथिली ने मन-ही-मन पहले उसे अपने स्वामी श्रीराम और देवर लक्ष्मण को निवेदन किया और इस प्रकार कहा-
‘यदि मेरे महाबली स्वामी अपने भाई के साथ जीवित हैं तो यह भक्तिभाव से उन दोनों के लिये समर्पित है।’ इतना कहने के पश्चात् उन्होंने स्वयं उस खीर को खाया।
इस प्रकार उस हविष्य को खाकर सुन्दर मुखवाली जानकी ने भूख-प्यास के कष्ट को त्याग दिया और इन्द्रके मुखसे श्रीराम तथा लक्ष्मणका समाचार पाकर वे जनकनन्दिनी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुईं।
तब निद्रासहित महात्मा देवराज इन्द्र भी प्रसन्न हो सीतासे विदा लेकर श्रीरामचन्द्रजीके कार्यकी सिद्धिके लिये अपने निवासस्थान देवलोकको चले गये।
सीताराम सीताराम सीताराम कहिए।
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए॥